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अर्थात् प्रियवचन व्यवहार से सभी जीव संतुष्ट होते हैं, इसलिए प्रिय ही बोलना चाहिए, वचनों में क्या दरिद्रता करना। सभी के प्रति मैत्री, प्रमोद, करुणा व व्यवहार व्यवहार रखना यही सामान्यतः धर्म का लक्षण है। 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थगुणसहितोऽहम् ॥5॥
नित्य विचारणीय को कालो काणि मित्ताणि, किं धम्मो को ममं हिदू।
को हं का य मे सत्ती, लक्खं चिंतेह सव्वदा॥6॥ अन्वयार्थ-(कालो) काल (को) कौन हैं ? (य) और (मित्ताणि) मित्र (काणि) कौन हैं ? (किं धम्मो) धर्म क्या है? (को ममं हिद) मेरा हितकारक कौन है? (को हं) मैं कौन हूँ? (का य मे सत्ती) और मेरी शक्ति क्या है? (लक्खं) लक्ष्य को (सव्वदा) हमेशा (चिंतेह) चिंतन करो।
अर्थ-काल कौन है? मेरे मित्र कौन हैं? धर्म क्या है? मेरा हितचिंतक कौन है? मैं कौन हूँ और मेरी शक्ति क्या है तथा मेरा लक्ष्य क्या है? इसका निरंतर चिंतन करना चाहिए।
व्याख्या-मनन करना मनुष्य का लक्षण है। अहितकारी प्रपंचों का तो प्रत्येक जीव सदा से ही चिंतन करता रहा है। इस पर्याय में अब कुछ विशेष होना चाहिए। काल कौन है? समय ही काल है। अतः समय का सदुपयोग करना चाहिए अथवा काल के अनुसार, वय के अनुसार आत्मकल्याण का विचार करना चाहिए।
मित्र कौन हैं? संसारी स्नेहीजन वास्तव में मित्र नहीं हैं। हमारे श्रेष्ठतम भाव अथवा पंचपरमेष्ठी ही हमारे सच्चे मित्र हैं। धर्म क्या है? वस्तु का स्वभाव अर्थात् आत्मलीनता ही धर्म है अथवा आत्मकल्याण का साधन होने से श्रेष्ठ धार्मिक आचरण भी धर्म है। जिससे हिंसादि पाप व रागादि की वृद्धि हो, वह कोई धर्म नहीं है। मेरा हितकारक कौन है? वस्तुत: स्वधर्म, जिनधर्म ही मेरा हित करने वाला है।
मैं कौन हूँ? मैं ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला चैतन्य आत्मा हैं। मेरी शक्ति क्या है? निजात्मानुभव के बल से शुद्धात्मोपलब्धि की शक्ति मुझमें है। मेरा प्रातव्य क्या है? मुझे शुद्ध निजात्मा ही प्राप्त करने योग्य है। इस प्रकार का श्रेष्ठ चिंतन नित्य करना चाहिए। चिंतन से चरित्र का निर्माण होता है। बारह भावनाओं के चिंतन से मनुष्य का जीवन वैराग्यमय बन जाता है। इसलिए अनुप्रेक्षाओं का अनुप्रेक्षण नित्य करना चाहिए। अचिन्त्य-ज्ञानस्वरूपोऽहम्'॥6 ।।
अनित्य-भावना अथिरं मित्त-लावण्णं, कलत्तं सजणो तहा।
धण-धण्णादि गेहं च, सव्वं हि जलबुब्बदं ॥7॥ 192 :: सुनील प्राकृत समग्र