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अन्वयार्थ-(मित्त-लावण्णं) मित्र लावण्य (कलत्तं) स्त्री (सजणो) स्वजन (तहा) तथा (धण-धण्णादि) धन-धान्यादि (च) और (गेहं) घर (सव्वं हि) सब ही (जलबुब्बदं) जल के बुलबुले के समान (अथिरं) अस्थिर है।
अर्थ-मित्र, लावण्य, सुंदर स्त्री, स्वजन तथा धन-धान्यादि और घर सब कुछ ही वस्तुतः जल के बुलबुले के समान अस्थिर है।।
व्याख्या-सम्पूर्ण विश्व में पर्याय स्वभाव से कुछ भी नित्य नहीं हैं। क्योंकि पर्याय कहते ही उसे हैं,जो निरंतर परिणमनशील हो। प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय तीन घटनाएँ घटती हैं-1. उत्पाद 2. व्यय और 3.ध्रौव्य। एक ही वस्तु एक ही समय में अन्यपर्याय रूप से उत्पन्न, पिछली पर्याय रूप से विनष्ट तथा वस्तु स्वभाव से ध्रौव्यरूप रहती है।
समय के फेर से मित्र भी अमित्र हो जाते हैं । यौवनावस्था का लावण्य (तेज) सदा नहीं रहता, एक दिन शरीर पर झुर्रियाँ पड़ती ही हैं। स्त्री भी शाश्वत नहीं है। स्वजन-परिजन भी परिवर्तन शील हैं अथवा कभी स्वजन भी शत्रु बन जाते हैं। हिरण्य-स्वर्ण, रुपया-पैसा आदि धन तथा धान्यादि पदार्थ भी अशाश्वत ही हैं। जिस माटी के घर को बनाने में सारा जीवन बर्बाद कर दिया, वह भी शाश्वत नहीं है।
कोयले की दलाली में हाथ ही काले होते हैं। लाभ कुछ भी नहीं। यह लोकोक्ति अज्ञानीजनों पर खूब फबती है। क्योंकि अज्ञानतावश मनुष्य जिंदगी भर बाह्य पदार्थों के संग्रह, सुरक्षा, वृद्धि आदि में लगा रहकर अपने योग व उपयोग को ही मलिन करता रहता है। वह पदार्थों में तो क्या परिवर्तन करेगा? क्योंकि पदार्थों का परिणमन तो पदार्थों के आधीन है।
अनित्य भावना के भाने से यह दृढ़ता आती है कि ध्रुवदृष्टि से आत्मतत्त्व ही शाश्वत है, शेष सब अशाश्वत। अपने निजध्रुवतत्त्व की दृष्टि करने पर ही जीव को संवर निर्जरा व मोक्ष की प्राप्ति होती है। 'शाश्वतस्वरूपोऽहम्' ॥7॥
देहादि की अनित्यता पडिक्खणं सरीराऊ, छि जदि जोव्वणादिगं।
तदो सिग्धं च कादव्वं, अप्पकल्लाण सोक्खदं ॥8॥ अन्वयार्थ-(सरीराऊ) शरीर-आयु (च) और (जोव्वणादिगं) यौवनादिक (पडिक्खणं) प्रतिक्षण (छिज्जदि) क्षीण होते हैं (तदो) इसलिए (सोक्खदं) सुख देने वाला (अप्पकल्लाण) आत्मकल्याण (सिग्घं) शीघ्र (कादव्वं) करना चाहिए।
अर्थ-शरीर, आयु और यौवन आदि प्रतिक्षण क्षीण होते हैं, इसलिए सुख देने वाला आत्म-कल्याण शीघ्र कर लेना चाहिए।
व्याख्या-'शीर्यते इति शरीरः' जो शीर्ण होता है, वह शरीर पुद्गल की
भावणासारो :: 193