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बार-बार भाव करना भावना है। कहा है- अनु भूयोभूयः प्रकर्षेण ईक्षणं अनुप्रेक्षाः । इसलिए जैसी भावना आज तक नहीं की वैसी भावना करो, जिससे कर्मबंध नाश को प्राप्त हो जाते हैं। 'अभावित भावस्वरूपोऽहम्' ॥3॥
भावों का फल सुद्धभावेहि मोक्खो य, सग्गो सुहभावेहि वा।
दुग्गदी असुहेहिं च, तम्हा सुद्धं च चिंतह॥4॥ अन्वयार्थ (सुद्धभावेहि मोक्खो) शुद्धभावों से मोक्ष (सुहभावेहि) शुभभावों से (सग्गो) स्वर्ग (य) और (असुहेहिं) अशुभभावों से (दुग्गदी) दुर्गति [होती है] (तम्हा) इसलिए (सुद्धं च चिंतह) शुद्ध का ही चिंतन करो।।
अर्थ-शुद्धभावों से मोक्ष, शुभभावों से स्वर्ग तथा अशुभभावों से दुर्गति होती है, इसलिए शुद्ध का ही चिंतन करना चाहिए।
व्याख्या-जीवों के परिणाम मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-1. शुद्ध 2.शुभ, 3. अशुभ। प्रवचनसार में कहा है
सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु।
परिणामो णण्णगदं, दुक्खक्खय कारणं समए॥181॥ अर्थात् शुभ परिणाम पुण्य, अशुभ परिणाम पाप कहे गए है, जबकि शुभाशुभ से रहित आत्मगत परिणाम आगम में दुःख क्षय के कारण कहे गए है।
प्रवचनसार (11-12) में और भी कहा है कि धर्म से परिणत आत्मा यदि शुद्ध संप्रयोग सहित है, तो मोक्षसुख को पाता है; और यदि शुभसंप्रयोग सहित है तो स्वर्गसुख को पाता है। अशुभोपयोग से सहित आत्मा कुमानुष, तिर्यंच तथा नारकी होकर सहस्रों दु:खों को भोगता हुआ संसार में भटकता है। . गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है-कायवाङ्मनः कर्मयोगः ॥ ॥ सः आस्रवः ॥2॥ शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य ॥3॥ काय, वचन व मन के कर्म को योग कहते हैं। वही आस्रव है। शुभयोग पुण्य तथा अशुभ पाप का कारण है।
मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति से अशुभोपयोग होता है, जिससे अशुभ कर्मास्रव होता है, इससे जीव को संसार में भ्रमण करते हुए दुःख भोगना पड़ता है। मन वचन काय की शुभ प्रवृत्ति से शुभोपयोग होता है, जिससे शुभास्रव होता है, इससे जीव को सांसरिक सुख मिलते हैं। इन दोनों प्रकार के उपयोग से रहित जो आत्मानुभवरूप शुद्धोपयोग है, वह मोक्ष का कारण है। __ कर्मों के क्षय का कारण होने से शुद्धोपयोग ही आदरणीय है। आत्म
190 :: सुनील प्राकृत समग्र