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वीदरागवाणी-त्थुदी (वीतरागवाणी-स्तुति)
णाण-णिज्झरी सव्वदा, वीदरागवाणी सदा।
कण्णंजली पेज्जा सुधा, जयदु भारदी सारदा॥॥ अर्थ-जो हमेशा ज्ञानरूपी निर्झरों को बहाती है, कर्णरूपी अंजलि से पीने योग्य अमृत स्वरूप है, वह भारती, शारदा आदि नामों से युक्त वीतरागवाणी सदा जयवन्त हो।
उसहादि-जिणवरेहि कहिदा, गणहरमुणीहि गंथिदा। सुदकेवलीणं मुह-विराजिदा, अंगधारिणा वंदिदा॥ भद्दबाहु-मुणि-पुष्फ-भूदबलि-गुणधरादिणा पूजिदा। सरणदाइणी णिच्चमभयदा, जयदु भारदी सारदा॥
णाण-णिज्झरी सव्वदा.॥॥ अन्वयार्थ-(उसहादि जिणवरेहि कहिदा) ऋषभादि जिनवरों द्वारा कथित (गणहरमुणीहि गंथिदा) गणधर मुनियों द्वारा ग्रंथित (सुदकेवलिणं मुह विराजिदा) श्रुत केवलियों के मुख में विराजित (अंगधारिणा धारिदा) अंगधारियों के द्वारा धारित (भद्दबाहु मुणि पुप्फ भूदबलि गुणधरादिणा पूजिदा) भद्रबाहु मुनि, पुष्पदंत भूतबली गुणधर आदि द्वारा पूजित (सरणदायिणी) शरण देने वाली (णिच्चमभयदा) नित्य अभय देने वाली (भारती सारदा जयदु) भारती शारदा जयवंत हो।
अर्थ-जो ऋषभदेव आदि जिनवरों द्वारा कही गयी है, गणधर-मुनियों द्वारा गूंथी गयी है, श्रुतकेवलियों के मुख में विराजित रहने वाली, अंगधारियों द्वारा वंदित, भद्रबाहु, पुष्पदंत, भूतबली, गणधर आदि श्रेष्ठ मुनियों द्वारा पूजित, नित्य ही शरण और निर्भयता प्रदान करने वाली, भारती तथा शारदा आदि नामों से युक्त वीतराग वाणी जयवन्त हो।
तिसिद-सावगेहिं परिपीदा, सुर-मणुजाणं वंदिदा। समिदि गुत्ति महव्वदपूदा, रयणत्तयेण मंडिदा॥
114 :: सुनील प्राकृत समग्र