________________
भावार्थ-जिस प्रकार एक-एक बूंद पानी से घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार परिश्रम से अर्जित अक्षर-अक्षर ज्ञान से मनुष्य महा-विद्वान, थोड़े-थोड़े धर्माचरण से धार्मिक तथा थोड़े-थोड़े धन के संग्रह से धनवान बन जाता है।
ये सहज ही संतुष्ट हो जाते हैं सहावेण हि तुस्संति, देवा सप्पुरिसा पिदा।
जादीओ अण्ण-पाणेहिं, वक्कदाणेण पंडिदा॥148॥ अन्वयार्थ-(देवा सप्पुरिसा पिदा) देव सत्पुरुष पिता (सहावेण हि) स्वभाव से ही (जादीओ अण्ण-पाणेहिं) जाति-बन्धु अन्न-पान से (वक्कदाणेण पंडिदा) वाक्यदान से पंडितजन (तुस्संति) संतुष्ट होते हैं।
भावार्थ-देव, सत्पुरुष और पिता तो अपने भक्त-प्रशंसक-पुत्र पर स्वभाव से ही प्रसन्न रहते हैं, सजातीय भाई-बन्धु भोजन-पानी के द्वारा तथा सुवचनों के प्रयोग पूर्वक चर्चा करने से पंडित जन प्रसन्न होते हैं।
कर्मानुसार फल होता है कम्मा एदि फलं पुंसं, बुद्धी कम्माणुसारिणी। तहावि सुविचारे हिं, चरियं चरदे सुही॥149॥
अन्वयार्थ-(पुंसं कम्मा एदि फलं) मनुष्य को कर्मानुसार फल [प्राप्त होता है] (च) और (बुद्धी कम्माणुसारिणी) बुद्धि कर्मानुसार होती (तहावि) फिर भी (सुही) बुद्धिमान (सुविचारेहि, चरियं चरदे) विचार पूर्वक आचरण करते हैं।
भावार्थ-मनुष्यों को कर्म के उदय से ही अच्छा-बुरा, सुख-दुःख रूप कर्मफल प्राप्त होता है और बुद्धि भी कर्मों के अनुसार होती है, फिर भी बुद्धिमान जन अच्छी तरह सोच-विचार कर ही कोई क्रिया करते हैं, आचरण करते हैं।
स्वयं ही फैल जाते हैं जले तेल्लं खले गुज्झं, पत्ते दाणं मणाग वि।
पण्णे सत्थं सयं जादि, वित्थरं वत्थुसत्तिदो॥150॥ अन्वयार्थ-(जले तेल्लं) जल में तेल (खले गुझं) खल में रहस्य (पत्ते दाणं) पात्र में दान (पण्णे सत्थं) प्रज्ञावान में शास्त्र (मणाग वि) थोड़ा भी (सयं) स्वयं (वत्थुसत्तिदो) वस्तुशक्ति से (वित्थरं) विस्तार को (जादि) प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ-वस्तु शक्ति से जल में गिरा हुआ तेल, दुष्ट व्यक्ति में गया हुआ थोड़ा-सा गुप्त रहस्य, सुपात्र में दिया गया थोड़ा-सा दान तथा प्रज्ञावान मनुष्य को प्राप्त हुआ थोड़ा-सा ज्ञान विस्तार को प्राप्त हो जाते हैं। ये थोड़े होते हुए भी इनके
180 :: सुनील प्राकृत समग्र