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लोग-णीदी .. (लोक नीतियाँ)
पंडित कौन है? सिद्धमट्ठ-गुणोवेदं, णिव्वियारं णिरंजणं। तं सरिसं णियप्पाणं, जो जाणेदि स पंडिदो॥61॥
अन्वयार्थ-(अट्ठ-गुणोवेदं) आठ-गुणों को प्राप्त (णिव्वियारं) निर्विकार (णिरंजणं) निरंजन (सिद्धं) सिद्ध हैं (तं सरिसं) उनके समान (णियप्पाणं) निज आत्मा को (जो) जो मनुष्य (जाणेदि) जानता है (स) वह (पंडिदो) पंडित है।
भावार्थ-आठ कर्मों के नाश से सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों को प्राप्त, निर्विकार अर्थात् ज्ञानावरणादि, राग-द्वेषादि कर्म रूप अंजन से रहित सिद्ध भगवान के समान जो अपनी आत्मा को जानता है, वेदन करता है, वह पंडित है।
___पंडित क्या नहीं करते लिंगिणं च गुरुं इत्थिं, दुज्जणं णिवई तहा। मुक्खं बालं च सप्पं च, कोहेंति णो हि पंडिदा॥62॥
अन्वयार्थ-(लिंगिणं) लिंगधारी (गुरु) गुरु (इत्थिं) स्त्री (दुजणं) दुर्जन (णिवई) राजा (तहा) तथा राज-सेवक (मुक्खं) मूर्ख (बालं) बालक (च) और (सप्पं) सर्प को (पंडिदा) बुद्धिमान लोग (णो कोहेति) कुपित नहीं करते हैं।
भावार्थ-समझदार लोग भेषधारी साधु, गुरु, स्त्री, दुर्जन, राजा, तथा राजसेवक, मूर्ख, बालक और सर्प को क्रोधित नहीं करते हैं, अर्थात् इनके सम्बन्ध में कोई भी ऐसी चेष्टा नहीं करते जिससे कि ये कुपित हो जायें, क्योंकि इनके रुष्ट हो जाने पर कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। कभी-कभी तो प्राण जाने का भी खतरा रहता है।
विवेक की महिमा णरत्तं सुउले जम्मं, लच्छी बुद्धी सुसीलदा।
विवेगेणं विणा सव्वे, गुणा दोसा व णिप्फला ॥63॥ 150 :: सुनील प्राकृत समग्र