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इनका विश्वास नहीं करना चाहिए णखाणं च णईणं च, सिंगीणं सत्थ-पाणिणं।
विस्सासो व कादव्वो, इत्थीणं णिवदीण वा॥119॥ अन्वयार्थ-(णखाणं) नखवालों का (णईणं) नदियों का (सिंगीणं) सींगवालों का (सत्थ-पाणिणं) शस्त्र-वालों का (इत्थीणं) स्त्रियों का (च) और (णिवदीण वा) राजा, राज-नेताओं अथवा अधिकारियों का (विस्सासो) विश्वास (णेव) नहीं (कादव्वो) करना चाहिए।
भावार्थ-नख वाले पशु जैसे-सिंह, बन्दर, भालू आदि का, नदी में अचानक भी बाढ़ आ जाती है, वह कहीं बहुत गहरी हो सकती है अतः नदी का, सींग वाले पशु जैसेगाय, बैल, भैंस आदि का, हाथ में हथियार लिए हुए व्यक्ति का, स्त्रियाँ कुपित होने पर अनर्थ कर सकती हैं इसलिए स्त्रियों का, राजनेताओं अथवा अधिकारियों का 'चकार' से दाँत वाले पशुओं का तथा शत्रु-पक्ष का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए।
उसे यहीं स्वर्ग है जस्स पुत्तो वसीभूदो, णारी छन्दाणुवट्टिणी।
संतुट्ठो पत्त-विहवे, तस्स सग्गो इहेव हि॥20॥ अन्वयार्थ-(जस्स) जिसका (पुत्तो वसीभूदो) पुत्र वशीभूत है (णारी छन्दाणुवट्टिणी) स्त्री अनुसरण करने वाली है और जो] (पत्त-विहवे) प्राप्त वैभव में (हि) अच्छी तरह (संतुट्ठो) सन्तुष्ट है (तस्स सग्गो इहेव) उसके लिए स्वर्ग यहीं है।
भावार्थ-जिसका पुत्र आज्ञाकारी है, समर्पित है, स्त्री इच्छानुसार प्रवृत्ति करने वाली है तथा जो प्राप्त हुई धन-सम्पत्ति में ही सन्तुष्ट है, ऐसे मनुष्य के लिए यहीं स्वर्ग है, क्योंकि उसके लिए बहुत सी अनुकूलता और अनाकुलता यहीं प्राप्त हो जाती है। वस्तुतः अनाकुलता ही सुख है।
किसका मूल क्या है लोह-मूलाणि पावाणि, बाहिणो रसमूलगा।
णेहमूलाणि दुक्खाणि, णिम्ममत्तं हि वा सुहं॥121॥ अन्वयार्थ-(हि) वस्तुतः (लोह-मूलाणि पावाणि) लोभ पापों का मूल है, (बाहिणो रसमूलगा) बीमारियाँ रस-मूलक हैं, (णेहमूलाणि दुक्खाणि) स्नेह दुःख का मूल है (वा) और (णिम्ममत्तं) निर्ममत्व (सुह) सुख का मूल हैं।
भावार्थ-लोभ सब पापों की जड़ है, यदि लोभ नष्ट हो जाए तो पाप न हो। विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का निरन्तर सेवन बीमारियों की जड़ है, यदि मनुष्य सादा-सीमित एवं शुद्ध भोजन करें तो कभी बीमार पड़ने की नौबत ही नहीं आए। दुख का मूल कारण राग (प्रेम) है, यदि राग न हो तो विकल्प भी न हों और 170 :: सुनील प्राकृत समग्र