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इनमें लज्जा मत करो धण-धण्णप्पओगेसु, विज्जा-संगहणेसुवा।
आहारे ववहारम्मि, चत्तलज्जा सुही हवे136॥ अन्वयार्थ-(धण-धण्णप्प ओगेसु) धन-धान्य के प्रयोग में (विजासंगहणेसु) विद्या के संग्रह में (वा) अथवा (आहारे) आहार में (ववहारम्मि) व्यवहार में (चत्तलज्जा सुही हवे) लज्जा त्यागी ही सुखी होता है।
भावार्थ-धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या के संग्रह करने में, आहार करने में तथा लोक- व्यवहार सम्बन्धी क्रियाओं में जो मनुष्य लज्जा छोड़ प्रवृत्ति करता है वह ही सुखी होता है।
संतोष-असंतोष संतोसो तिसु कादव्वो, सदारे भोयणे धणे।
तिसु चेव ण कादव्वो, सज्झाए तवदाणेसु॥137॥ अन्वयार्थ-(सदारे भोयणे धणे) स्वदार, भोजन [तथा] धन (तिसु) [इन] तीन में (संतोसो कादव्वो) सन्तोष करना चाहिए (सज्झाए तवदाणेसु) स्वाध्याय तप दान [इन] (तिसु) तीन में (ण कादव्वो) नहीं करना चाहिए।
भावार्थ-बुद्धिमान गृहस्थ को अपनी स्त्री, भोजन तथा धन, इन तीन में सन्तोष धारण करना चाहिए, किन्तु स्वाध्याय, तप और दान इन तीन में सन्तोष कभी भी नहीं करना चाहिए। निरन्तर स्वाध्याय करने से ज्ञान, तप से संतोष तथा दान से धन बढ़ता है।
तब तक चांडाल है। तेल्लण्हाणे चिदा-धूमे, मेहुणे छोर-कम्मणे।
ताव हवदि चंडालो, जाव ण्हाणं करेदि णो॥138॥ अन्वयार्थ-(तेल्लण्हाणे) तेल से स्नान करने पर (चिदा-धूमे) शवदाह में जाने पर (मेहुणे) मैथुन करने पर (छोर-कम्मणे) बाल-कटाने पर [मनुष्य] (ताव) तब तक (चंडालो हवदि) चाण्डाल होता है (जाव) जब तक (ण्हाणं णो करेदि) स्नान नहीं करता है।
भावार्थ-तैलादि प्रसाधनों से स्नान करने पर अथवा बहुत सजने-संवरने पर, शव-दाह क्रिया में जाने पर, मैथुन से निवृत्त होने पर और बाल काटने अथवा कटवाने पर मनुष्य तब तक अस्पृश्य की श्रेणी में गिना जाता है, जब तक कि वह स्नान नहीं कर लेता है। इन कार्यों के बाद स्नान अवश्य करना चाहिए।
जैसा अन्न, वैसा मन
176 :: सुनील प्राकृत समग्र