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अन्वयार्थ-(जामादा जढरं जाया जादवेदा जलासओ) दामाद, जठर, पुत्री, अग्नि, जलाशय (पूरिदा णेव पूरंते) भरने पर भी नहीं भरते [ये] (पंच जकारा दुब्भरा) पाँच जकार दुर्भर हैं।
भावार्थ-दामाद-जमाई, जठर-पेट, जाया-पुत्री अथवा संतान, जातवेदस्अग्नि अथवा तृष्णा और जलाशय-समुद्र अथवा तालाब ये पाँच 'जकार' दुर्भर है। कितना ही भरते जाओ पर ये कभी पूर्ण रूपसे नहीं भरे जा सकते। 'ज' अक्षर से शुरू होने के कारण इन्हें 'पंच-जकार' कहा गया है।
दुर्गतिनाशक पाँच सकार सच्चं सोजण्ण-संतोसो, समदा साहु-संगदी।
सकारा पंच वदंते, दुग्गदिं णेव एदि सो॥3॥ अन्वयार्थ-जिसके(सच्चं सोजण्ण-संतोसो, समदा साहु-संगदी) सत्य, सौजन्य, सन्तोष, समता, साधु-संगति (पंच सकारा वटुंते) पाँच सकार वर्तते हैं (सो) वह (दुग्गदि) दुर्गति को (णेव एदि) प्राप्त नहीं करता है।
भावार्थ-सत्य-सत्यवादिता, सौजन्य-मिलनसारिता, संतोष-संतुष्टता समता और साधुजनों की संगति करना इन पाँच सकारों में जिसकी प्रवृत्ति है वह दुर्गति को नहीं पाता। 'स' अक्षर से प्रारम्भ होने के कारण ये पाँच 'सकार' कहलाते हैं।
दुर्गति के निवारक पाँच दकार दाणं दया दमोसेट्ठो, दंसणं देवपूयणं ।
दकारा जाण विज्जंते, गच्छंते ते ण दुग्गदि ।।74॥ अन्वयार्थ-(दाणं दया दमो सेट्ठो दंसणं देवपूयणं) दान, दया, श्रेष्ठ दमन, देवदर्शन, देवपूजन (दकारा जाण विज्जंते) [ये] दकार जिसके पास रहते हैं, (ते) वे (दुग्गदि) दुर्गति को (ण) नहीं (गच्छंते) जाते हैं।
भावार्थ-सुपात्रों में दान देना, जीवों पर दया करना, इन्द्रियों का श्रेष्ठ दमन करना, दर्शन तथा जिनेन्द्र-देव की पूजन करना। ये पाँच दकार जिन मनुष्यों में विद्यमान रहते है, वे दुर्गति-खोटी गति में नहीं जाते है। दर्शन शब्द के यहाँ दो अर्थ किए हैं-1. सच्चे-देव का प्रतिदिन दर्शन करना, 2. सम्यग्दर्शन प्राप्त होना या प्राप्त करने का प्रयास करना।
त्याज्य हैं सात मकार मज्जं मंसं महुं मूलं, मक्खणं माण-मूढदा। णिच्चं भव्वेहि चत्तव्वा, मकारा सत्त दुक्खदा ।।75॥
154 :: सुनील प्राकृत समग्र