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सुहायरं) सब जीवों को सुखकारी (मधुरं) मधुर (य) और (वच्छलं वक्कं) वात्सल्य युक्त वाक्य (सज्जणेहि) सज्जनों के द्वारा (वत्तव्वं) बोले जाना चाहिए।
भावार्थ-सज्जन-पुरुषों के द्वारा कार्यकारी, हितकारी, सीमित, श्रेष्ठ-आगम सम्मत, सभी सुनने वाले जीवों को सुखकारी, मधुर और वात्सल्य, भाव युक्त वचन ही बोले जाने चहिए। यूँ तो हमेशा सत्य ही बोलना चाहिए, परन्तु ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए जिससे किसी को बहुत दु:ख उठाना पड़े।
बंध मोक्ष का कारण मन मणमेव मणुस्साणं, कारणं बंधमोक्खणे।
गेहासत्तो च बंधस्स, मोक्खस्स संजमे ठिदो॥96॥ अन्वयार्थ-(मणुस्साणं) मनुष्यों का (मणमेव) मन ही (बंधमोक्खणे) बन्धमोक्ष में (कारणं) कारण है (गेहासत्तो बंधस्स) घर में आसक्त बन्ध का (च) और (संजमे ठिदो) संयम में स्थित (मोक्खस्स) मोक्ष का।
भावार्थ-मनुष्य का मन ही उनके बन्ध और मोक्ष में कारण है। घर-गृहस्थी में आसक्त मन कर्मबन्ध का कारण है तथा राग-द्वेष से रहित संयम में स्थित मन मोक्ष का अर्थात् संसार से मुक्ति का कारण है। अतः मन को वश में कर आत्मकल्याण का पुरुषार्थ करना चाहिए।
इन्हें उत्तर मत दो भू-विज्जा-अत्थ-सामिम्मि, तवजुत्ते महा-जणे।
मुक्खे सत्तु-गुरुम्मि य, दायव्वं णेव उत्तरं ॥97॥ अन्वयार्थ-(भू-विज्जा-अत्थ-सामिम्मि) विद्या के स्वामी, धन के स्वामी, धरती के स्वामी (तवजुत्ते) तप में युक्त (महा-जणे) महा समूह में (मुक्खे) मूर्ख में (सत्तु-गुरुम्मि य) शत्रु और गुरु में (उत्तरं णेव दायव्वं) उत्तर नहीं देना चाहिए।
भावार्थ-विद्यावान, धनवान, धरती के स्वामी-राजा अथवा जमींदार, तपस्वी, महाजन अर्थात् मान्य व्यक्ति अथवा बहुत सारे लोग, मूर्ख, शत्रु और गुरु को उत्तर नहीं देना चाहिए। उत्तर नहीं देने से तात्पर्य है कि ऐसे वाद-विवाद से बचना चाहिए, जो उन्हें क्रोधित कर दे। इनके सामने प्रायः मौन ही रहना चाहिए।
मौन के स्थान भोयणे वमणे ण्हाणे, मेहुणे मलमोयणे।
सामाइगे जिणच्चाए, सुहीणं मोण-सत्तगं॥8॥ अन्वयार्थ-(भोयणे वमणे ण्हाणे मेहणे मलमोयणे) भोजन, वमन, स्नान, मैथुन, मल-त्याग (सामाइगे जिणच्चाए) सामायिक [तथा] जिनार्चना में (सुहीणं) 162 :: सुनील प्राकृत समग्र