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अन्वयार्थ-(मज्जं मंसं महुं मूलं मक्खणं-माण-मूढदा) मद्य, मांस, मधु, कंदमूल, मक्खन, मान, मूढता (दुक्खदा) दुःख देने वाले (सत्त मकारा) सप्त मकार (णिच्चं) हमेशा (भव्वेहि) भव्यों के द्वारा (चत्तव्वा) त्यागने योग्य हैं।
भावार्थ-मद्य-शराब, मांस-जीवों का कलेवर, मधु-शहद, मूल-कंदमूल (आलू, गाजर, मूली आदि), मक्खन-नवनीत, मान-अभिमान और मूढ़ता अर्थात् कुदेव-शास्त्र-गुरु के प्रति श्रद्धा ये सात मकार अति-दु:खदायी हैं; अत: आत्म हित की इच्छा करने वाले भव्य जीवों के द्वारा त्यागने-छोड़ने योग्य हैं।
दु:ख के कारण परसेवा य दालिदं, चिंता-सोगादि-संभवं।
तहावमाणदो दुक्खं, णरस्स णारगायदे 176॥ अन्वयार्थ-(परसेवा) दूसरों की सेवा (दालिदं) दरिद्रता (य) और (चिंतासोगादि-संभवं) चिंता-शोकादि से उत्पन्न (तहा अवमाणदो) तथा अपमान से उत्पन्न (दुक्खं) दु:ख (णरस्स) मनुष्यों को (णारगायदे) नारकियों जैसा दु:खी कर देता है।
भावार्थ-निरन्तर दूसरों की सेवा-चाकरी करना, दरिद्रता-अत्यन्त गरीबी, चिन्ता-तनाव, शोक आदि से तथा अपमान से उत्पन्न दुःख (भीतरी कष्ट) मनुष्यों को नारकियों के समान दुःखों का अनुभव करा देता है। अर्थात् उपरोक्त दु:ख मनुष्य को महाकष्टकारी हैं।
एक पुत्र भी अच्छा एगो चेव वरं पुत्तो, जो सम्मग्गपरायणो।
विचार-कुसलो धीरो, पियराणं सुहप्पदो।।77॥ अन्वयार्थ-(जो सम्मग्ग परायणो) जो सन्मार्ग में लगा हुआ (विचारकुसलो) विचार-कुशल (धीरो) धीर [तथा] (पियराणं सुहप्पदो) माता-पिता को सुखप्रद हो [ऐसा] (एगो चेव) एक पुत्र ही (वरं) श्रेष्ठ है।
भावार्थ-जो अच्छे आचरण वाला, सच्चे धर्म (व्रत-नियमों) का पालन करने वाला, विचार करने में कुशल, धैर्यवान्, शूरवीर, साहसी, माता-पिता को सुख-प्रदान करने वाला तथा उनकी आज्ञानुसार चलने वाला हो ऐसा एक पुत्र (पुत्री) ही अच्छा है।
मित्र का लक्षण सोग-सत्तु-भयत्ताणं, पीदी-विस्सास-भायणं। गुणेहिं जुंजदे णिच्चं, सेट्ठ-मित्तस्स लक्खणं॥78॥
लोग-णीदी :: 155