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मंगलप्पसत्थी (मंगल-प्रशस्ति, गाहा-छन्द)
उसहादि-वड् ढमाणं पज्जतं च गणहरे देवे।
केवलि-सुदकेवलिणं, सुदधारिणं आयरियं वंदे॥1॥ अर्थ-वृषभदेव से लेकर वर्धमान पर्यंत समस्त तीर्थंकरों, गणधर देवों, केवली, श्रुतकेवली तथा श्रुतधारी आचार्यों को मैं वन्दन करता हूँ।
धरसेणं मुणिणाहं, सुयधारिणमप्यरूवतल्लीणं।
सुदस्स चिंता-जुत्तं, वंदेहं धीर-आइरियं ॥2॥ अर्थ-मैं मुनियों के नाथ, श्रुतधारी, आत्मस्वरूप में तल्लीन तथा श्रुतोद्धार की चिंता से युक्त आचार्य धरसेन की वन्दना करता हूँ।
पुष्फ भूदबलिं वा, सुदपत्तं विणय-संजुत्तं।
छक्खंडागं वंदे, तेण कदं गंथरायं वा॥3॥ अर्थ-श्रुतपात्र अथवा श्रुत को प्राप्त तथा विनय संयुक्त आचार्य श्री पुष्पदन्त व भूतबलि को और उनके द्वारा रचित ग्रन्थराज 'श्री षट्खंडागम' को वन्दन करता हूँ।
सूरिं गुणधरणामं, सुदंसजुत्तं च अप्पझाण-रदं।
तेण य लिहिदं गंथं, पेज्जदोस पाहुडं वंदे ॥4॥ अर्थ-श्रुतांशयुक्त, आत्मध्यानरत, गुणधर नामक आचार्य को तथा उनके द्वारा रचित ग्रन्थ 'पेज्जदोस-पाहुड' को मैं वन्दन करता हूँ।
भव्वकुमुदाण इंदु, पवयणसारादि-गंथ-कत्तारं।
अप्पज्झाणेसु रदं, वंदामि कुन्दकुन्दायरियं ॥5॥ अर्थ- भव्यजीवरूपी कमलों के लिए चन्द्रमा के समान, प्रवचनसारादि ग्रन्थों के कर्ता तथा आत्मध्यान में लीन आचार्य शिरोमणि कुन्दकुन्ददेव की मैं वन्दना करता हूँ।
मंगलप्पसत्थी :: 125