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नहीं सताऊँ किसी जीव को, झूठ कभी नहिं कहा करूँ। पर धन वनिता पर न लुभाऊँ, सन्तोषामृत पिया करूँ ॥
गव्विट्ठो णो हवे हं, णो य कुप्पेह कदावि इदरेसिं । अण्णेसिं पगदीए, होमि णो कदावि ईसालू ॥7 ॥
अहंकार का भाव न रक्खूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ। देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या - भाव धरूँ ॥
गुणीण पासियं चित्तं, होदु सदा पेम्म- पूरिदं मे हि । किच्चा सेवं तेसिं, होदु सुही मम मणो णिच्चं ॥8 ॥ गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे । बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे ॥
मम भावणा अत्थु सदा, ववहरिदुं वंकरहिद- हियएणं । जाव-जीवं जहसत्ती, परोवयारी वि सदा होमु ॥१ ॥ रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य - व्यवहार करूँ।
जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ ॥ मित्ती - भावो मज्झं, हवेज्ज लोएसु सव्वजीवेसु । पसरदु करुणासोदं, हिदयादो दीण - दुहिएसु ॥10 ॥ मैत्री भाव जगत् में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे । दीन दुःखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत बहे ॥
छुब्धं हं णो कदावि, कुमग्गचरिदेसु दुट्ठ - कूरेसु । धरेमु समदाभावं, णिरंतरं तेसु जीवेसु ॥11 ॥ दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्य भाव रक्खूँ में उन पर ऐसी परिणति हो जावे ॥
होमि णेव किदग्घो, णेव च दोहं मं उरे होदु । गुणग्गाही खलु होमि, दोसण्णेसी णो कदावि ॥12 ॥ होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे । गुण- ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ॥
दिंतु पसंसंतु व, लच्छी एदि वा णो हि एदि वा । जीवेमि लक्खवासं, जायदु मिच्चू वा
अज्जेव ॥13 ॥
122 :: सुनील प्राकृत समग्र