________________
रत्ति-दिवं च भुंजेदि, खादमाणो खुचिट्ठदि।
सिंग-पुच्छादुहीणो सो, पसूइव हि णिच्छयं॥13॥ अन्वयार्थ-(रत्ति-दिवं भुंजेदि) जो रात-दिन खाता रहता है (च) और (खादमाणो खु चिट्ठदि) खाते हुए ही काम करता रहता है (सो) वह (सिंग-पुच्छादु हीणो) सींग-पूछ से रहित (पसू इव हि णिच्छयं) निश्चित ही पशु के समान है।
अर्थ-जो रात-दिन खाता रहता है और खाते हुए ही काम करता रहता है, वह सींग-पूछ से रहित निश्चित ही पशु के समान है।
आइच्चे विलयं जादे, णीरं रुहिरसण्णिहं।
अण्णं मांस-समं उत्तं, अमियचंद-सूरिणा॥14॥ अन्वयार्थ-(आइच्चे विलयं जादे) सूर्य के अस्त हो जाने पर (अमियचंद सूरिणा) अमृतचन्द्र आचार्य के द्वारा (णीरं रुधिर-सण्णिह) पानी खून के समान तथा (अण्णं मांस-समं उत्तं) अन्न मांस के समान कहा गया है।
अर्थ-सूर्य के अस्त हो जाने पर पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ में अमृतचन्द्र आचार्य के द्वारा पानी खून के समान तथा अन्न मांस के समान कहा गया है।
सदा रत्तिम्मि आहारंजे ण खादंति सज्जणा।
तेसिं पक्खुववासस्स, फलं मासेसु जायदे॥15॥ अन्वयार्थ-(जे सज्जणा) जो सज्जन (सदा) हमेशा (रत्तिम्मि) रात में (आहारं) सभी प्रकार के भोजन को (ण खादंति) नहीं खाते हैं (तेसिं) उनको (मासेसु) माह में (पक्खुववासस्स) पक्ष के उपवास का (फलं) फल (जायदे) होता है।
__अर्थ-जो सज्जन हमेशा रात में सभी प्रकार के भोजन को नहीं खाते हैं, उनको माह में पक्ष के उपवास का फल होता है।
रयणत्तय-संपुण्णा, पंचाणुव्वद-संजुदा।
झाणलीणा यदीसंते, दिवा-भोयणस्स फलं॥16॥ अन्वयार्थ-[लोक में जो मनुष्य] (रयणत्तय संपुण्णा) रत्नत्रय से सम्पूर्ण (पंचाणुव्वद संजुदा) पंचाणुव्रतों से संयुक्त (च) तथा आत्मध्यान में (सुलीणं) अच्छी तरह लीन (दीसंते) देखे जाते हैं [वह] (दिवा-भोयणस्स फलं) दिवस में किए भोजन का फल है। अर्थात् रात्रि भोजन त्याग का फल है। ___ अर्थ-लोक में जो मनुष्य रत्नत्रय से सम्पूर्ण, पंचाणुव्रतों से संयुक्त तथा आत्मध्यान में अच्छी तरह लीन देखे जाते हैं, वह दिवस में किए भोजन का फल है।
रत्तिभोयण-चाग-पसंसा :: 119