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रत्तिभोयण-चाग-पसंसा
(रात्रि-भोजन-त्याग-प्रशंसा)
अहिंसा-वद-रक्खठें, मूल-गुण-विसोहिए।
वज्जेज्जा भोयणं रत्तिं, जिणिंदेण पइत्तिदं॥ अन्वयार्थ-(अहिंसा-वद रक्खट्ठ) अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए [और](मूलगुण विसोहिए) मूलगुणों की विशुद्धि के लिए (जिणिंदेण पइत्तिदं) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया (रत्तिं भोयणं वज्जेज्जा) रात्रि भोजन छोड़ना चाहिए।
अर्थ-अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए और मूलगुणों की विशुद्धि के लिए जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया रात्रि भोजन छोड़ना चाहिए।
चउव्विहं ण रत्तीए, भुंजंति करुणापरा।
णिच्छयं अहिगच्छंति, सग्गंमोक्खंचसज्जणा॥ अन्वयार्थ-[जो] (करुणापरा) करुणायुक्त (सज्जणा) सज्जन (चउव्विहं) चार प्रकार के भोजन को (रत्तीए) रात में (ण भुंजंति) नहीं खाते हैं [वे](णिच्छयं) निश्चित ही (सग्गं मोक्खं च) स्वर्ग और मोक्ष (अहिगच्छंति) जाते हैं।
अर्थ-जो करुणायुक्त सज्जन चार प्रकार के भोजन को रात में नहीं खाते हैं, वे निश्चित ही स्वर्ग और मोक्ष जाते हैं।
धणवंता गुणजुत्ता, सुरूवा दिग्घजीविणो।
पहाणपद-सण्णाण-जुत्ता दिणासण-फलं॥3॥ अन्वयार्थ-[जो] (धणवंता) धनवान (गुण-जुत्ता) गुणयुक्त (सुरूवा) रूपवान (दिग्घजीविणो) दीर्घजीवी (पहाणपद-सण्णाणजुत्ता) प्रधानपद और सम्यग्ज्ञान युक्त जीव इस लोक में दिखते हैं वह (दिणासण-फलं) दिवस भोजन का फल है।
. अर्थ-जो धनवान, गुणयुक्त रूपवान, दीर्घजीवी, प्रधानपद और सम्यग्ज्ञान युक्त जीव इस लोक में दिखते हैं, वह दिवस भोजन का फल है।
अंजणा सुप्पहा णीली, चेलणा चंदणा तहा। सीदावहोंति इत्थीओ, रत्ति-भोयण-वज्जणा॥4॥
116 :: सुनील प्राकृत समग्र