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अंकलेस्सट्ठगं (अंकलेश्वराष्टक, गाथा-छन्द)
अंकलेस्सरणयरो य, गुजरदेसे भरुच सण्णियडे।
धण-धण्णेहिं पुण्णो, धम्मप्पेहिं सोहिदो अत्थि॥1॥ अन्वयार्थ-(अंकलेस्सरणयरो) अंकलेश्वर नगर (गुजरदेसे) गुर्जर देश में (भरुच सण्णियडे) भरुच के सन्निकट (धण-धण्णेहिं पुण्णो) धन-धान्य से पूर्ण (य) और (धम्मप्पेहिं सोहिदो अत्थि) धर्मात्माओं से शोभित है।
___ अर्थ-अंकलेश्वर नगर गुर्जर देश अर्थात् गुजराज राज्य में भरुच के सन्निकट धन-धान्य से पूर्ण और धर्मात्माओं से शोभित है।
रयणत्तयं व अस्थि तयजिणगेहा अतीव-उत्तुंगा।
धवल-सिहरेहि भांति, चूलियाजुत्तो मेरूव॥2॥ अन्वयार्थ-(रयणत्तयं व) रत्नत्रय के समान (अतीव-उत्तुंगा) अत्यन्त ऊँचे (तय जिणगेहा) तीन जिनगृह (अत्थि) हैं (जो) जो (धवल-सिहरेहि) धवल शिखरों से (चूलियाजुत्तो मेरूव) चूलिका युक्त मरु के समान (भाँति) शोभित होते हैं जैसे चूलिका युक्त मेरु पर्वत हों।
अर्थ-रत्नत्रय के समान अत्यन्त ऊँचे तीन जिनगृह हैं जो धवल शिखरों से ऐसे शोभित होते हैं जैसे चूलिका युक्त मेरु पर्वत हों।
पढमे जिणिंदगेहे जिण्णुद्धरिए तिखंडसंजुत्ते।
कमसो आदि जिणिंदो वीरो चंदादि सोहंति ॥3॥ अन्वयार्थ-(जिण्णद्धरिए) जीर्णोद्धारित (तिखंडसंजत्ते) तीनखंड युक्त (पढम जिणिंदगेहे) प्रथम जिनेन्द्रगृह में (कमसो) क्रमशः (आदि जिणिंदो) आदिजिनेन्द्र, (वीरो) वीर जिनेन्द्र (चंदादि) चन्द्रप्रभ आदि के जिनबिंब (सोहंति) सुशोभित हैं।
__ अर्थ-जीर्णोद्धारित तीनखंड युक्त प्रथम जिनेन्द्रगृह में क्रमशः आदिजिनेन्द्र, वीर जिनेन्द्र व चन्द्रप्रभ आदि के जिनबिंब सुशोभित हैं।
विदिए जिणिंदभवणे, जुण्णे उच्चे य तिखंडमए। अदिसयवंतो पासो, पोम्मो पासादि सोहं ति॥4॥
106 :: सुनील प्राकृत समग्र