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सम्मदि-थुदी (सम्मति-स्तुति)
जो वीदराग-णिय-अप्प-सरूव झाणे, रम्मेदि णिच्चमक्खय जिणमग्ग ठाणे। जुत्तं सुदंसण-तवे य चरित्त-णाणे,
सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं ॥1॥ जो वीतराग निज आत्मस्वरूप के ध्यान में व अक्षय जिनमार्ग के स्थान में नित्य रमते हैं तथा सम्यग्दर्शन, तप, चारित्र व ज्ञान में युक्त हैं उन आचार्यश्री सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
णिहोस-मग्ग-गमणे य पयत्त-चित्तो, अण्णे य णिप्पिह सहाव-समत्त-जुत्तो। तारेदि अण्ण-जण-धम्म-सुमग्ग दिण्णं,
सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं ॥2॥ निर्दोष मार्ग पर गमन में प्रयत्नचित्त, अन्य में निस्पृह स्वभाव युक्त, अन्य जनों को धर्म का सुमार्ग देकर तारने वाले आचार्यश्री सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
मूलुत्तरेहि गुणजुत्त विरत्तदोसा, णिग्गंथ लोग सयलं हिदकारगं वा। सिंहव्व जो विचरदे इह भूमि देसे,
सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं ॥3॥ मूलोत्तर गुणों से युक्त, दोषों से विरक्त, निग्रंथ, सकल लोक के हितकारक व जो सिंह के समान इस भूमि पर विचरते हैं, उन आचार्य सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
गंभीर धीर कुसलो दिढ-चित्त वीरो, सज्झाय वायण रदो उवदेसगो जो। चारित्त-चक्कवहणे अवि सूरिचक्कि, सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं॥4॥
104 :: सुनील प्राकृत समग्र