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गुरु-माहप्पं (गुरु-माहात्म्य, गाथा-छन्द)
रयणत्तेहिं सुद्धो, पंच-महव्वद-तिगुत्ति-संजुत्तो।
विसय-कसाया दूरो, णाणी झाणी व सेट्ठगुरु॥ अन्वयार्थ-(रयणत्तोहिं सुद्धो) रत्नत्रय से शुद्ध (पंच-महव्वद-तिगुत्ति) पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति संयुक्त, (विसय-कसाया दूरो) विषय-कषायों से दूर (णाणी झाणी व सेट्ठगुरु) ज्ञानी और ध्यानी ही श्रेष्ठ गुरु हैं।
अर्थ-रत्नत्रय से शुद्ध, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति सहित, विषय-कषायों से दूर, ज्ञानी और ध्यानी ही श्रेष्ठ गुरु हैं।
गुरु आणाए मुक्खो, गुरुप्पसाएहिं अत्थसिद्धी।
गुरुभत्तीए विजा-साफल्लं होई णियमेण ॥2॥ अन्वयार्थ-(गुरु आणाए मुक्खो) गुरु आज्ञा से मुख्य होता है, (गुरुप्पसाएहिं अत्थसिद्धीअ) गुरु प्रसाद से अर्थ सिद्धि होती है, (गुरुभत्तीए विज्जा-साफल्लं) गुरुभक्ति से विद्या की सफलता (णियमेण होई) नियम से होती है।
अर्थ-गुरु आज्ञा से मुख्य होता है, गुरु प्रसाद से अर्थ सिद्धि होती है, गुरुभक्ति से विद्या की सफलता नियम से होती है।
गुरुचरणे विवसंता अणुकूला जे ण होंति दुस्सीला।
ते हदभग्गा पत्ता कप्परुक्खेण किंचि ण पावंति॥७॥ अन्वयार्थ-(गुरुचरणे वि वसंता) गुरुचरणों में रहते हुए भी (जे) जो (दुस्सीला) दुःशील (अणुकूला ण होंति) अनुकूल नहीं होते (ते हदभग्गा) वे हतभाग्य (पत्ता कप्परुक्खेण किंचि ण पावंति) प्राप्त हुए कल्पवृक्ष से कुछ नहीं पाते
___ अर्थ-गुरुचरणों में रहते हुए भी जो दुःशील शिष्य गुरु के अनुकूल नहीं होते वे हतभागी मानों प्राप्त हुए कल्पवृक्ष से कुछ नहीं पाते हैं।
पच्चक्खमह-परोक्खे अवण्णवादंगुरुस्स जो कुणइ। जम्मंतरे वि दुल्लहं जिणिदवयणं पुणो तस्स ॥4॥
गुरु-माहप्पं :: 109