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गंभीर, धीर, कुशल, दृढचित्त, वीर, स्वाध्याय, वाचना व उपदेश में लीन तथा चारित्र- चक्र के वहन करने में चक्रवर्ती के समान आचार्य सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
सत्तू य मित्त-समभाव-पसंत सीलो, णिंदा-थुदी य समभाव समत्तजुत्तो। सुक्खं च दुक्ख-मरणं अह जीवणं च।
सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं ॥5॥ शत्रु व मित्र में समभाव, प्रशान्त शील युक्त, निन्दा-स्तुति, सुख-दुख, जीवन-मरण आदि में समता भावयुक्त आचार्य सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
अज्झप्पसायर सुसत्थ सुपारपत्तो, झाणस्स मग्ग-णिरदं दुवि-गंथमुत्तो। संसार-सिंधू तरणे तरणीसमाणं,
सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं॥6॥ अध्यात्म के सागररूप श्रेष्ठ शास्त्रों के पार को प्राप्त, ध्यानमार्ग में निरत, द्विविध ग्रंथमुक्त अर्थात् अन्तरंग व बहिरंग परिग्रह रहित, संसार सिन्धु से तरने में नौका के समान आचार्य सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
वच्छल्लमुत्ती विमलं विमलस्स सिस्सं, सिद्धंतपारग-गुणी विदितं रहस्सं। लोए तवस्सी णिवरूव य सुप्पसिद्धं,
सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं ॥7॥ वात्सल्यमूर्ति, विमलरूप विमलसागर के शिष्य, सिद्धान्त पारगामी-गुणी, रहस्य शास्त्रों के ज्ञाता, लोक में 'तपस्वी सम्राट' के रूप में सुप्रसिद्ध आचार्य सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
सूरिंद-सेट्ठ-मुणिकुंजर-आदिसिंधू, तप्पट्टसिस्स महदो महावीर-कित्ती। पट्टेसु तस्स णियदं आदिसोहिदं वा,
सूरिं णमामि सिरि-सम्मदिसागरं तं ॥8॥ आचार्य श्रेष्ठ मुनिकुंजर आदिसागर उनके पट्ट शिष्य महान महावीरकीर्ति उनके पट्ट पर नियत व अत्यंत शोभित आचार्य सन्मतिसागर को मैं नमन करता हूँ।
सम्मदि-थुदी :: 105