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चउ-आयरिय-त्थुदी (चतु-आचार्य स्तुति, उपजाति-छन्द)
गणिंद-सेठें पढम मुणिंद, सम्मत्त-चारित्त-सुणाण-चंद। तच्चोवदेसिं च सत्तोववासिं, सूरिं णमामि मुणिकुंजरं तं॥
अन्वयार्थ-[जो] (सम्मत्त-चारित्त-सण्णाणचंदं) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी चन्द्र हैं (तच्चोवदेसिं) तत्त्वोपदेशी (य) और (सत्तोववासिं) सप्तोपवासी हैं (तं) उन (मुणिकुंजरं) मुनिकुंजर (गणिंद) गणीन्द्र (सेठं) श्रेष्ठ (पढम-मुणिंदं) प्रथम मुनीन्द्र को (णमामि) नमस्कार करता हूँ।
अर्थ-जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी चन्द्रमा हैं, तत्त्वोपदेशी और सप्तोपवासी हैं उन मुनिकुंजर गणीन्द्र श्रेष्ठ आचार्य आदिसागर (अंकलीकर) मुनीन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ। (अंकली गांव में जन्म लेने के कारण आचार्य श्री अंकलीकर कहलाते हैं।)
विस्सट्टकित्तिं महावीरकित्ति, धीरं-गहीरं य सुझाण-तित्ति।
अट्ठारहभासाधारगं च, जिदोवसग्गं च सूरिं णमामि॥2॥
अन्वयार्थ-(विसट्टकित्ति) विस्तारित कीर्ति वाले (धीर) धीर (गहीरं) गंभीर (सुझाणतित्तिं) सच्चे ध्यान से तृप्त (अट्ठारहभासाधारगं) अठारह भाषाओं को धारण करने वाले (च) और (जिदोवसग्गं) उपसर्ग विजयी (सूरिं) आचार्य (महावीरकित्तिं) महावीर कीर्ति को [मैं] (णमामि) नमस्कार करता हूँ।
__अर्थ-विस्तारित कीर्ति वाले, धीर-गंभीर, सच्चे ध्यान से तृप्त अठारह श्रेष्ठ भाषाओं को धारण करने वाले और उपसर्ग विजयी आचार्य महावीर कीर्ति को मैं नमस्कार करता हूँ।
वच्छल्लमुत्तिं समभावजुत्तं, कारुण्ण-पुण्णं अभयप्पदायं। लोगाण-तित्थुद्धरणादिकत्तं, सम्मग्गदायं विमलं णमामि॥3॥
अन्वयार्थ-(वच्छल्लमुत्तिं) वात्सल्यमूर्ति (समभावजुत्तं) समभावयुक्तं (कारुण्ण-पुण्णं) करुणापूर्ण (अभयप्पदायं) अभयप्रदाता (लोगाण-तित्थुद्धरणादिकत्तं) लोगों व तीर्थों का उद्धार करने वाले (सम्मग्गदायं) सन्मार्गदाता (विमलं) विमलसागर
102 :: सुनील प्राकृत समग्र