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अन्वयार्थ-(जिणिंद त्थुदि-सीलस्स) जिनेन्द्र देव की स्तुति करने के स्वभाव वाले के [तथा] (णिच्चं वंदणकारिणो) नित्य वन्दना करने वाले के (चत्तारि गुणा) चार गुण (आऊ विज्जा बलं जसो) आयु विद्या बल और यश (वड्ढंते) बढ़ते हैं।
अर्थ-जिनेन्द्र देव की स्तुति करने के स्वभाव वाले के तथा नित्य वन्दना करने वाले के चार गुण निरंतर बढ़ते हैं-आयु, विद्या, बल और यश।
सव्वे रोगा भया सव्वे, सव्वदुक्खस्स संतदी।
सव्वण्हू-त्थुदि-मेत्तेण, णस्संति णत्थि संसयो॥5॥
अन्वयार्थ-(सव्वे रोगा) सभी रोग (सव्वे भया) सभी भय (य) और (सव्वदुक्खस्स संतदी) सभी दु:खों की परंपरा (सव्वण्हूत्थुदी-मेत्तेण) सर्वज्ञ देव की स्तुति मात्र से (णस्संति) नष्ट हो जाती है [इसमें] (संसयो) संशय (णत्थि) नहीं है।
अर्थ-सभी रोग, सभी भय और सभी दुःखों की परंपरा सर्वज्ञ देव की स्तुति मात्र से नष्ट हो जाती है, इसमें संशय नहीं है।
उवसग्गा खयं जंति, णस्सदि विग्घबल्लरी।
मणे उवसमो एदि, वंदमाणे जिणेस्सरे ॥6॥ अन्वयार्थ-(जिणेस्सरे वंदमाणे) जिनेश्वर की वन्दना करने पर (उवसग्गा) उपसर्ग (खयं जंति) क्षय को प्राप्त हो जाते हैं (विग्घबल्लरी णस्सदि) विघ्नरूपी बेल नष्ट हो जाती है [तथा] (मणे उवसमो एदि) मन में प्रशम-भाव आता है।
अर्थ-जिनेश्वर की वन्दना करने पर उपसर्ग क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, दुःख-शोक दारिद्र्य आदि विघ्नरूपी बेल नष्ट हो जाती है तथा मन में प्रशम [शांति] भाव आता है।
भत्तिजुत्त-सहावो य, महिमंडल मंडणो।
सुरासुरेहि पुज्जेदि, भत्तो मोक्खं च गच्छदि॥7॥ अन्वयार्थ-(भत्तिजुत्तसहावो) भक्तियुक्त स्वभाव वाला (च) और (महिमंडल मंडणो) पृथ्वीतल का आभूषण [ऐसा] (भत्तो) जिनेन्द्रभक्त (सुरासुरेहि पुज्जेदि) सुर-असुरों के द्वारा पूजा जाता है (च) तथा (मोक्खं गच्छदि) मोक्ष जाता है।
अर्थ-भक्तियुक्त स्वभाव वाला और पृथ्वीतल का आभूषण ऐसा जिनेन्द्र भगवान का भक्त सुर-असुरों के द्वारा पूजा जाता है तथा मोक्ष जाता है।
जो करेदि जिणिंदाणं, पूयणं ण्हवणं जवं।
ईसरत्तं च भोत्तूण, पावदि सस्सदिं महिं॥8॥ 92 :: सुनील प्राकृत समग्र