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गुरु-त्थूदी
(गुरु-स्तुति, अनुष्टुप छन्द)
सुदे वदे पचक्खाणे, संजमे णियमे तवे । जस्स बुद्धी सदा जुत्ता, सो हि गुरु पकित्तिदो ॥ 1 ॥
अन्वयार्थ - (सुदे वदे पचक्खाणे संजमे णियमे तवे) श्रुत, व्रत, प्रत्याख्यान, संयम, नियम और तप में (जस्स बुद्धी सदा जुत्ता) जिनकी चेतना सदा युक्त रहती है ( सो हि गुरु पकित्तिदो) वस्तुतः वह ही गुरु कहा गया है।
अर्थ – श्रुत, व्रत, प्रत्याख्यान, संयम, नियम और तप में जिनकी चेतना सदा युक्त रहती है वस्तुतः वह ही गुरु कहा गया है।
गिरीहो णिव्वियारो य, राय-दोस विमुत्तओ । हिदोवदेसगो सुद्धो, किवालू दुल्लहो गुरु ॥2 ॥
अन्वयार्थ - (णिरीहो) निरीह (णिव्वियारो) निर्विकार ( राय-दोसेहि हीणओ) राग-द्वेष से रहित (हिदोवदेसगो) हितोपदेशक (सुद्धा) शुद्ध (य) और (किवालू) कृपालु (गुरु) गुरु (दुल्लहो) दुर्लभ है।
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अर्थ – निरीह, निर्विकार, राग-द्वेष से रहित हितोपदेशक शुद्ध और कृपालु गुरु दुर्लभ है।
भिक्खं चरंति जे सुण्णे, जिणालए रमंति वा । बहुजप्पंति ण णिंद, कुणंति ते तवोधणा ॥3 ॥
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अन्वयार्थ – (जे) जो (भिक्खं चरन्ति) भिक्षापूर्वक चर्या करते हैं (सुण्णे जिणालए वा रमंति) शून्य घर, उपवन अथवा जिनालय में रमते हैं (बहुजप्पंति ण णिंदं कुणंति) बहुत बोलते नहीं, निंदा करते नहीं (ते) वे (तपोधणा) तवोधन [साधु] कहलाते हैं ।
अर्थ – जो भिक्षापूर्वक चर्या करते हैं; शून्य घर, उपवन अथवा जिनालय में रमते [रहते] हैं, बहुत बोलते नहीं, किसी की निन्दा करते नहीं, वे तपोधन (साधु) कहलाते हैं।
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