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वड्ढमाणट्ठगं होदु, सव्वकल्लाण-कारगं । जाव चंदो य सूरो य, वड्ढदु जिणसासणं ॥9॥
अन्वयार्थ – [ यह] (वड्ढमाणट्ठगं) वर्धमान अष्टक (सव्वकल्लाण-कारगं) सर्वकल्याण कारक (होदु) हो, (य) तथा (जाव) जब तक (सूरो य चंदो) सूर्य और चन्द्र है [तब तक] (वड्ढदु जिणसासणं) जिनशासन वृद्धिंगत हो ।
अर्थ — यह वर्धमान अष्टक स्तोत्र सभी जीवों के सभी कल्याणों को करने
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वाला हो तथा जब तक इस लोक में सूर्य और चन्द्रमा है तब तक जिनेन्द्र भगवान का अहिंसा व स्याद्वादमय शासन वृद्धिंगत हो । दयामय जैनधर्म की प्रभावना और वीतराग स्याद्वादमय जिनवाणी का निरंतर प्रचार- प्रसार हो ।
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सुनील प्राकृत समग्र