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संपुण्ण- सारद - णिसायर-कंति-सोहं, जुत्तं सया हि परि वेट्ठिद - भूवइंदं । राजेदि- बाल - अरुण व्व सुवण्ण-देहं, तं वड्ढमाण- जिणणाह-महं णमामि ॥16 ॥
अन्वयार्थ - जो (संपुण्ण- सारद - णिसायर-कंति-सोहं) सम्पूर्ण शारदीय चन्द्रकांति की शोभा से (जुत्तं) युक्त हैं (सदा परिवेट्ठिद - भूव- इंदा) राजा व इन्द्रों से सदा परिवेष्ठित है (च) तथा ( बाल अरुणव्व सुवण्ण देहं ) बालसूर्य के समान देह (राजेदि) सुशोभित है जिनकी (तं वड्ढमाण - जिणणाहमहं णमामि ) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ।
अर्थ – जो शारदीय पूर्णिमा के चन्द्र की कांति से संयुक्त हैं, राजाओं व इन्द्रों से परिवेष्ठित (घिरे ) हैं तथा उगते हुए बालसूर्य के समान स्वर्ण देह युक्त हैं उन श्री वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ ।
जोइंद-पुज्ज-जगणाह - पबोहजुत्तं, साहाविगं सय-सहस्स-गुणेहि जुत्तं । गंभीर-धीर - खमभाव-विसाल-भूमिं तं वड्ढमाण - जिणणाह-महं णमामि ॥7 ॥
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अन्वयार्थ – (जोइंद- पुज्ज - जगणाह - पबोहजुत्तं) योगीन्द्रपूज्य, जगन्नाथ, प्रबोधयुक्त, (साहाविगं सय - सहस्स - गुणेहि जुत्तं) लाखों स्वाभाविक गुणों से युक्त (गंभीर-धीर - खमभाव-विसाल - भूमि) गंभीरता, धीरता व क्षमाभाव की विशाल भूमि (तं वड्ढमाण - जिणणाहमहं णमामि ) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ। अर्थ – योग धारण करने वाले श्रेष्ठ मुनियों में प्रधान, योगीन्द्रों से पूज्य, जगत्पति, श्रेष्ठ ज्ञानयुक्त अथवा स्वकीय ज्ञान से प्रबोध को प्राप्त, स्वाभाविक सैकड़ों-हजारों गुणों से युक्त तथा गंभीरता, धीरता व क्षमाभाव की विशाल भूमि के समान उन श्री वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ ।
तुंगत्तणे गिरिसमो अहिराजदे जो, वा ईसरत्त-गुण- इंद- रिंद - पुज्जो । कल्लाण-पत्त- णिरवेक्ख-जणाण-बंधू, तं वड्ढमाण - जिणणाह- महं णमामि ॥8 ॥
अन्वयार्थ – (जो ) जो ( तुंगत्तणे गिरिसमो अहिराजदे ) ऊँचे पर्वत के समान अधिराजित है (ईसरत्त - गुण) जिनका ऐश्वर्य गुण (इंद - णरिंद - पुज्जो) इन्द्र- नरेन्द्र द्वारा पूज्य हैं (जो) (कल्लाण-पत्त) कल्याण प्राप्त (वा) तथा ( णिरबेक्ख जणाणबंधू) मनुष्यों के निरपेक्ष बंधु हैं ( तं वड्ढमाण - जिणणाह - महं णमामि ) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ ।
अर्थ–जो अत्यन्त ऊँचे पर्वत के समान सुशोभित हैं, अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न. जिनका ऐश्वर्य गुण इन्द्रों व नरेन्द्रों से पूज्य है, जो पंचकल्याणकों को प्राप्त तथा भव्य मनुष्यों (जीवों) के निरपेक्ष बंधु हैं, उन श्री वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ।
वड्ढमाण- अट्ठगं : 79