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वड्ढमाण-अट्ठगं [वर्धमान-अष्टक, बसंततिलका-छन्द]
तिल्लोय-सव्व-विसयं च अलोग-लोगं, हत्थंगुलीय-तय-रेह-समं हि दिळं। रागादि-दोस-मद-मोह-विमुत्त-सुद्धं, तं वड्ढमाण-जिणणाह-महं णमामि॥1॥
अन्वयार्थ- [जिनने] (अलोग-लोगं) लोक अलोक सहित (तिल्लोयसव्व-विसयं) तीन लोक के सभी विषय को (हत्थंगुलीय) हस्तांगुली की (तय रेह समं हि दिलैं) तीन रेखा के समान ही देखा है (च) और (रागादि- दोस-मदमोह-विमुत्त) रागादि दोष, मद, मोह से विमुक्त (शुद्ध) शुद्ध हैं (तं वड्ढमाणजिणणाहमहं णमामि) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ।
अर्थ-जिन्होंने लोक-अलोक सहित तीन लोक के सभी द्रव्यों की सभी पर्यायों को हाथ की अंगुली की तीन रेखाओं के समान स्पष्ट देखा है, जो रागादि दोषों तथा मद-मोह से अच्छी तरह मुक्त हैं, उन वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ। पीऊस-पुण्ण-दिवसे अदि-पुण्णसीले, सग्गा चुदो णयर-कुंडपुरम्मि जादो। वीरो य तेरस-तिहिम्मि चेत्त-मासे, तं वड्ढमाण-जिणणाह-महं णमामि॥2॥ __अन्वयार्थ-(अदिपुण्णसीले) अतिपुण्यशील (तेरस-तिहिम्मि) तेरस तिथि (चेत्त-मासे) चैत्र मास (पीऊस-पुण्ण-दिवसे) अमृतपूर्ण दिवस में (सग्गा चुदो) स्वर्ग से च्युत होकर (वीरो) वीर (णयर कुंडल पुरम्मि) कुंडलपुर नगर में (जादो) जन्म हुआ [ऐसे महिमाशाली] (तं वड्ढमाण-जिणणाहमहं णमामि) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ।
___ अर्थ-वह त्रयोदशी तिथि, शुभ चैत्र मास, अमृतपूर्ण दिवस अत्यन्त पुण्यशाली है, जिसमें कि स्वर्ग से च्युत होकर वीर भगवान ने कुंडलपुर नगर में जन्म लिया, ऐसे अपूर्व महिमाशाली उन वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ। सिद्भत्थराय खलु सिद्धमणोरही सो, जादी यणाह-सुह-वंस-अतीव-सुद्धो। सुज्जो समाण वर जस्स सुपुत्तजादो, तंवड्ढमाण-जिणणाह-महंणमामि॥3॥ अन्वयार्थ-(अतीव-सुद्धो) अत्यन्त शुद्ध (जादी) जाति (य) और (सुहणाह
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