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मोहारिमल्लं खविऊण सल्लं, संपत्तसम्म दहिऊण कम्म। चारित्त-दिट्ठी-तव-णाणजुत्तं, वंदामि मल्लं सिरि मल्लिणाहं॥19॥
अन्वयार्थ-(सल्लं) शल्य को [वा] (मोहारिमल्लं) मोह रूपी मल्ल को (खविऊण) नष्टकर (कम्मं दहिऊण) कर्म को जलाकर (चारित्तदिट्ठीतवणाणजुत्त) सम्यक् चारित्र-दर्शन-तप, ज्ञान युक्त (सिरिमल्लिणाहं मल्लं) श्री मल्लिनाथ रूपी महामल्ल को [ मैं] (वंदामि) वन्दन करता हूँ।
अर्थ-माया, मिथ्या, निदान रूप शल्य व मोह रूपी मल्ल को नष्टकर, कर्म को जलाकर, सम्यक् चारित्र-दर्शन-तप और ज्ञान से युक्त श्री मल्लिनाथ रूपी महामल्ल को मैं वन्दन करता हूँ।
वदं णिहाणं मुणिसुव्वदं तं, सम्मत्त-दाणं च महव्वदाणं।
देविंद-विदेण-वंदं-मुणिंद, देवाहिदेवं पणमामि णिच्चं ॥20॥
अन्वयार्थ-(वदं णिहाणं) सुव्रतों के खजाने (महव्वदाणं सम्मत्तदाणं) महाव्रत [तथा] सम्यक्त्व देने के लिए(देविंद विदेण वंदं मुणिंद) देवेन्द्रों के समूह से वन्दनीय मुनीन्द्र (देवाहिदेवं मुणिसुव्वदं) देवाधिदेव मुनिसुव्रत जिनेन्द्र को [ मैं] (सिरसा) सिर झुकाकर (वंदामि) वन्दन करता हूँ।
अर्थ-अनेक सुव्रतों के खजाने महाव्रत और सम्यक्त्व देने के लिए तथा देवेन्द्रों के समूह से वन्दनीय मुनीन्द्र देवाधिदेव मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र को मैं सिर झुकाकर वन्दन करता हूँ।
पयासिदो जेण णाणेण लोगं, पवोहिदा केवि विमोक्खमग्गे। गिहत्थमग्गे य विविहा पविट्ठा, णमिं णमामि भावेहि सिरसा ।।21॥
अन्वयार्थ-(जेण) जिनने (णाणेण) ज्ञान से (लोगं) लोक को (पयासिदो) प्रकाशित किया (पवोहिदा) उपदेशित किए गए (केवि) कितने ही (विमोक्खमग्गे) मोक्ष मार्ग में [तथा] (विविहा) कितने ही (सुगिहत्थमग्गे) सद्गृहस्थ मार्ग में (पविट्ठा) प्रविष्ट हुए [उन] (णमिं) नमिनाथ जिनेन्द्र को (भावेहि) भावपूर्वक (सिरसा) सिर झुकाकर (णमामि) नमन करता हूँ।
अर्थ-जिनके द्वारा आत्मीय ज्ञानयुक्त बोध से उपदेशित किए गए लोकजन कितने ही मोक्ष मार्ग में तथा कितने ही सद्गृहस्थ मार्ग में प्रविष्ट हुए, उन नमिनाथ जिनेन्द्र को मैं भावपूर्वक सिर झुकाकर नमन करता हूँ।
महाणुभावं सुगुणेहिपुण्णं, हलिंद-देविंद-णरिंदपुज्जं। कुमारकाले चइदूणं सव्वं, णिग्गंथदेवं पणमामि णेमिं ॥22॥
68 :: सुनील प्राकृत समग्र