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लोगस्स-पुज-अरहंत-विसुद्ध-सिद्धं, आयारपूद-सयलाइरियं च सेठें। अज्झावयं पद-पडिट्ठिद-पाढगं च, वंदामि मंगल-सरूव सु-सव्वसाहुं॥6॥
अन्वयार्थ-(लोगस्स-पुज्ज-अरहंत) लोकपूज्य अरहंत (विसुद्ध-सिद्धं) विशुद्ध सिद्ध, (आयारपूद-सयलाइरियं च सेट्ठ) आचरण से पवित्र समस्त श्रेष्ठ आचार्य (अज्झावयं पद-पडिट्ठिद-पाढगं च) तथा अध्यापक के पद पर प्रतिष्ठित उपाध्याय (मंगल-सरूव सु) और मंगल स्वरूप (सव्वसाहुं) सर्वसाधु को [मैं] (वंदामि) वन्दन करता हूँ।
अर्थ- इन्द्रादि लोकमान्य विभूतियों द्वारा पूजा को प्राप्त अरहंतों, सम्पूर्ण कर्मों को नष्टकर विशुद्धता को प्राप्त सिद्धों, पंचाचारों से पवित्र श्रेष्ठ आचार्यों, अध्यापक के पद पर प्रतिष्ठित उपाध्यायों तथा लोक में मंगल स्वरूप समस्त साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ।
मंगल-पंचगं :: 73