Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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१८ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
आचार्यवर के प्रति कृतज बने रहे।
स० १९७० मे आचार्यवर रतनगढ पधारे। प० हरिनन्दनजी सस्कृत के अच्छे विद्वान थे। वे आचार्यवर के पास आये । प्रसंगवश आचार्यवर ने पूछा आपने कौन-सा व्याकरण पढा है ? पडितजी ने गर्वोक्तिपूर्ण वाणी मे कहा भट्टोजी दीक्षित रचित सिद्धान्त कौमुदी मैंने पढी है । वही एक मात्र सस्कृत व्याकरण है । उसके सिवाय दूसरा कोई सींगपूर्ण व्याकरण है ही नही। महर्षि अगस्त्य जैसे तीन अजुलियो मे समुद्र को पी गये, वैसे ही तीन मुनियो ने समग्र २०५-सिन्धु का निपान किया है। ऐसा कोई ०६ शेष नही बचा है, जो इस त्रिमुनि रचित व्याकरण से सिद्ध न हो।
गर्वोक्ति किसी के लिए भी अच्छी नही होती। एक विद्वान के लिए तो वह अच्छी होती ही नही। विद्या अनन्त है। उसका अन्त पाना किसी भी व्यक्ति के लिए सभव ही नही है । फिर भी मनुष्य अपनी अल्पज्ञता के कारण समय-समय पर गर्वोक्ति कर बैठता है। यह कैसा आश्चर्य है कि सर्वन को गर्वोक्ति करने का अधिकार है पर वह करता नही । अल्पज्ञ को वह अधिकार प्राप्त नहीं है, फिर भी वह करता है । पडितजी की गर्वोक्ति पर आचार्यवर को आश्चर्य हुआ। उन्होने कहा पडितजी, मैं सिद्धान्त-कौमुदी का प्रशसक हू । उसका महत्व भी समझता हू । पर, आपकी गर्वोक्ति ने मुझे वाध्य कर दिया है यह कहने के लिए कि आप सिद्धान्त-नौमुदी के द्वारा 'तुच्छ' शब्द की सिद्धि करे।
सिद्धान्त-कौमुदी की पुस्तक पडितजी के पास थी। वे उसमे तुच्छ' शब्द को सिद्ध करने वाला सूत्र देखने लगे। पुस्तक को काफी टटोला पर वह सूत्र मिला नही। उन्होने कहा महाराज | आज वह सूत्र नहीं मिला है। कल उसे देखकर मैं आपकी सेवा मे उपस्थित होऊंगा। दूसरे दिन मध्याह्न मे वे आये। बातचीत के प्रसग मे कहा -'तुच्छ' शब्द को सिद्ध करने वाला सूत्र मुझे नही मिला। मैने गर्वोक्ति की, उसके लिए आप मुझे क्षमा करें। आचार्यवर ने मुस्कान भरते हुए कहा - इस जगत् मे सव-कुछ अपूर्ण है, फिर हम पूर्णता और अपूर्णता को मापेक्ष दृष्टि से ही देखें । यही क्षमा है। यही हमारा मैत्री-सूत्र है, जो सबको जोडता है, किसी को किसी से दूर नही करता। मचमुच वह प्रमग मधुरता मे बदल गया। आचार्यवर ने पडितजी को पराजय का अनुभव नहीं होने दिया।
आचार्यवर के जीवन मे तत्वचर्चा के भी अनेक अवसर आए। वह वादविवाद का युग था। शास्त्रार्थ करना बहुत रसपूर्ण कार्य था। जय-पराजय की भावना प्रबल थी। इसलिए तत्त्वचर्चा की अपेक्षा इसे अधिक महत्त्व दिया जाता या कि कौन जीता और कौन हारा। आचार्यवर को भी इस युग के अनुभवो से गुजरना पड़ा। पर, उनका गहज रग इममें नही था। इसका श्रेय उनके जल कमलबत् निलप स्वभाव को ही दिया जा सकता है ।