________________
34 सिद्ध-मग्गी-कविंदाणं, सुदाराहग-सुत्तगं।
दायगं सुद-पादाणं, पादे पदे रमेज्जदु॥34॥ सिद्धमार्गी कवीन्द्रों, श्रुत पादकों, श्रुत आराधक सूत्र दायकों के लिए पाद और पद में रमणार्थ (रचनार्थ) नमन करता हूँ।
35
जंबु-सुधम्म-आदीणं, आरियाणं च वंदमि।
पुप्फ भूदवलिं सामि, सव्व-कव्व-कलाणगं॥35॥ जंबू, सुधर्मादि आर्यों की मैं वंदना करता हूँ। पुष्पदंत एवं भूतवलि स्वामी एवं सभी काव्य कलार्थियों को नमन करता हूँ।
36
सव्वेसिं आइरिज्जाणं, आयार-छंद-हेदुगं।
वाग-साहण-पादं च, विणा णस्थिथि संभवो॥36॥ आर्यजनों की आचार निष्ठता छंद के आकार का कारण बनती है। जो वागसाधना एवं पाद बिना संभव नहीं है।
37 वा वागेसरि-वागीसा, वागणंदी वयस्सिणी।
वागी-वाणी वयत्थीणी, वागणंदिणि-वागरी॥ वा, वागेश्वरी, वगीशा, वागणंदी, वचस्विनी, वागी, वाणी, वयत्थिनी वाग्नंदिनी, और वागरी जो भी है वह वचनों (काव्य रचना) में सहभागिनी बनेगी।
38 भा भारदी सुभाभाए, भासे भासेज्ज भस्सरी।
भासंगिणी सुभासंगी, भासं विणा ण मे गदी॥38॥ भा, भारती, भास्वरी भाषा में उत्तम भावों को रखती है इसलिए वह भावांगिनी स्वभाषांगी है उसके बिना मेरा काव्य संभव नहीं है।
39
सा सारदा सुरेसी हु, सारस्सद पदाण मे।
सरस्सदी वि सारंगी, सारं कव्वे सुदंसदे ॥१॥ वह शारदा, स्वरेश्वरी, मुझे सारस्वत पदों का दान करेगी। वह स्वरांगी सरस्वती काव्य में सार-वस्तु तथ्य दर्शाएगी।
सम्मदि सम्भवो :: 29