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योग, ध्यान, समाधि, बुद्धि का सम रखना, रोकना, बुद्धि की चंचलता और मन को वश में करना, आत्म तल्लीनता ध्यान है । (ये ध्यान के पर्याय है) जो आत्मा जिस परिणाम से पदार्थ का चिन्तन करता है वह भी ध्यान है। आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का चिन्तन करता है वह भी ध्यान है ।
12
चेदण्णए हु परिणाम सुहादि अत्थि लोगस्स सव्व-जगतच्च जहा हु चिट्ठ ।
देहु मे मम वि अस्स ण जस्स अथि संकम्प - हीण - मणुजा अणुचिन्तति ॥12 ॥
सुखादि चैतन्य के परिणाम कहे जाते हैं। लोक के समस्त पदार्थ जिस रूप में अवस्थित हैं उसमें ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ ऐसा संकल्प हीन मनुष्य सोचता, आत्म परिणामी नहीं ।
13
संकप्प जुत्त मणुजो जग जीव लोए रागं च दोस विसयादि पहाण भावं ।
बंधं च पत्त अणुसारि विगारि - मोही तिण्हं च वड्डयदि इट्ठ अणिट्ठ जुत्तो ॥ 13 ॥
इष्ट अनिष्ट संकल्प युक्त मनुष्य इस जीव लोक में राग द्वेष विषयादि प्रधान भाव एवं तृष्णा को बढ़ाता है । वह बंध को प्राप्त विकारी मोही बना रहता है ।
14
तच्चाण सद्दहण रित्त-सदा हु जीवो वत्थं सरूव-अतदं तदरूव चिन्ते ।
इटुं अणि-मदिवं अवझाण- कुव्वे ।
पासत्थ- झाण-सुह-अण्णसुहं ण अत्थि ॥14 ॥
तत्त्वों के श्रद्धान से रहित जीव अतद्रूप वस्तु को तद्रूप मानने लगता है। वह इष्ट-अनिष्ट मतिवाला अपध्यान करता है । प्रशस्तध्यान शुभ है चिन्तन करने योग्य है और अशुभ- अप्रशस्त है, जो उचित नहीं ।
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ट्ठे ण वत्थ लहणे रिद - दुक्ख - जादो अट्टो अणिट्ठ- गहदे हरदे ण रोहो ।
सम्मदि सम्भवो :: 199