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55 करिस्सामि करिस्सामि, करिस्सामि विंचिंतए।
मरिस्सामि मरिस्सामि, मरिस्सामि य विस्सरे॥55॥ सच तो यही है कि करुंगा, करुंगा सदैव करुगा ऐसा मोही चिन्तन करता है, पर मरूंगा, मरुंगा, मरुंगा ऐसा विस्मृत हो जाता है।
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देहं पडि ण मोहो त्थि, मिट्टि व्व णस्सदे सदा
अप्प-विसुद्धसभावी, किं कधं णत्थि चिन्तए ॥56॥ - देह के प्रति मोह ठीक नहीं, यह मिट्टी है, मिट्टी की तरह सदैव नष्ट होता रहता है। आत्मा है विशुद्ध स्वभावी, फिर क्यों नहीं उसकी चिन्ता करता है।
57 सगपर पगासत्थो, अत्थे अत्थ पगासदे।
अप्प कल्लाण-सेयो त्थि, सेयं सेयंस चिन्तहे॥57। स्व पर प्रकाशक अर्थ आत्मार्थ के प्रयोजन को प्रकाशित करता है। आत्मकल्याणार्थ जो उचित है, उस श्रेय रूप श्रेयांस का चिन्तन करें।
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जाए सुमंगला दिक्खा, णाण-दसण-मंथणं।
किच्चा चारित्त संसिद्धिं, संजमं तव-मंगलं ॥58॥ दीक्षा हुई श्राविका की तो वे सुमंगलामती माता जी बनी। यहाँ ज्ञान-दर्शन का मंथन हुआ एवं चारित्र संसिद्धि के लिए संयम एवं तप को आधारभूत बतलाया गया।
59 सुणील सायरो सूरी, णातपूते विराजदे।।
चाउम्मासे विविच्चेज्जा, दाहिण-जत्त-पोत्थ159॥ आचार्य सुनीलसागर जी नातेपुते में चातुर्मास कर रहे थे। वहाँ पर लिखीं 'मेरी दक्षिण यात्रा' का विमोचन यहीं हुआ। इचलकंरजी स्थान में आचार्य सन्मति सागर के सानिध्य में।
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तं इंचलकरंजीए, सम्माणपुव्व-संगये।
उणतिंस-णवंबारे-कागचंदूर-चंकमं॥60॥ उन आचार्य श्री को इचलकरंजी में बहुसम्मान प्राप्त हुआ। यहाँ पर आयोजन
सम्मदि सम्भवो :: 251