Book Title: Sammadi Sambhavo
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 266
________________ मंदक्रांता 37 सम्मंणाणं विहि णियम राजंत साहू सुणीलो संघं विद्धिं समय-सम-चिट्टंत तच्चप्पवीणं। अभासं सूरि-तव-णियमं सोहमाणो गणिंदो आणाभूदो सयल-जण-देसंत-देसे मुणिंदो॥ 37॥ आचार्य सुनीलसागर सम्यग्ज्ञान की विधि नियम में स्थित संघ की वृद्धि भी करते हैं। वे सिद्धान्त की सम्यक् साधना में स्थित तत्त्वप्रवीण होने के लिए अभ्यास (वस्तु तत्त्व का अभ्यास) करते हैं। वे आचार्य सन्मतिसागर के तप नियम को उत्कृष्ट बनाने वाले गणीन्द्र, आज्ञाभूत सकल जन समूह को देशना देने के लिए प्रत्येक अंचल में प्रवेश करने वाले मुनीन्द्र हैं। __38 समय-सुद-जिणिंद सारदं णाण-णंदं णयदि णय-सुपक्खं पाइए सक्किदे हु। सदद-तव-तवंतो सज्झए सुत्त अत्थं दिणयर-सम-तेज धारवंतो मुणिंदो॥38॥ दिनकर के समान उत्कृष्ट तेज को धारण करने वाले मुनीन्द्र तो शारदा के ज्ञान से आनंदित होते हैं। वे प्राकृत एवं संस्कृत के सारस्वत पुत्रों की वाणी के नय पक्ष को लेते, फिर श्रुत के यथार्थ जिनेन्द्र वचन को प्रस्तुत करते हैं। वे सतत् स्वाध्याय में लीन, तप तपते हुए सूत्रार्थ का विश्लेषण करते हैं। 39 मिदुतर-मिदुभासी सारदाणंद-णंदी गुरुवरगुरु आदिं सम्मदिं सूरि-माणं। पडिपलसुदिणेहू माणसाणंद कुव्वं चरदि समिदि गुत्तिं पालयतो मुणिंदो॥39॥ समिति गुप्ति पालते हुए मुनीन्द्र प्रतिसमय श्रुत को लेकर मानवों को आनंदित करते हैं। आचार्य सुनीलसागर जी गुरुणांगुरु आचार्य आदिसागर एवं आचार्य सन्मतिसागर का मान बढ़ाते हुए विचरण करते हैं। ये मृदुतर, मृदुभाषी, शारदा के नन्दन सरस्वती को वाणी को आधार बनाकर आनंदित होते हैं। ॥इदि चोदह सम्मदी समत्तो।। 264 :: सम्मदि सम्भवो

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