Book Title: Sammadi Sambhavo
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 268
________________ 2025 2026 2027 2028 1968 कुंथलगिरि 1969 गजपंथा 1970 मांगीतुंगी 1971 गिरनार जी। सूरी-पदेण परिभूसिद-सम्मदी सो चारित्त सुद्धि वदए महुरा पुरम्हि। सम्मेद सेल-सिहरे रस हीण-णिट्ठो रांची विहार-जल चाग छहे हु मासे ॥3॥ सूरीपद से विभूषित आचार्य सन्मतिसागर मथुरा में चारित्र शुद्धि व्रत (1972) को लेते हैं। सम्मेदशिखर में नीरस व्रत धारण करते हैं। रांची विहार में छ माह तक जल त्याग करते हैं। सो कोलकत्त णयरे परिचाग-अण्णं णेगोववास-इध भिंड जलं दु माह। भिंडे जबल्लपुर लक्खण-दस्स जुत्तो मुत्तावलिं च दुरगे कुणएदि सूरी॥4॥ .... आचार्य श्री कलकत्ता (1975) में अन्नत्याग, यहीं अनेक उपवास, भिंड में दो माह जल त्याग, इटावा (1977), भिंड (1978) एवं जबलपुर (1979) में दशलक्षणव्रत तथा दुर्ग (1980) में मुक्तावली व्रत करते हैं। सो सव्वदो वि वदभद्दय भद्द-हे, णागेपुरे दहुद-सोलह-सिंहिणिक्कं। आचावलंघणवदं पुर-डूंगरम्हि साहस्स-णाम-जिण-लोहरियाए गामे॥5॥ आचार्य श्री नागपुर (1981) में भद्र परिणामों के लिए सर्वतोभद्र व्रत ग्रहण करते हैं। दाहोद (1982) में सोलहकारण एवं सिंह निष्क्रिडित तप पालते हैं। डूंगरपुर (1983) में आचाम्ल-घनव्रत एवं लुहारिया (1984) में जिनसहस्रनाम व्रत की ओर अग्रसर होते हैं। 266 :: सम्मदि सम्भवो

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