Book Title: Sammadi Sambhavo
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 271
________________ 3. 4. पटना (1998) में चारित्रचूडामणि कोटा में वात्सल्य रत्नाकर पद से विभूषित हुए। 13 वाराणसी कुणदि तं च महा तवस्सी। तक्को सिरोमणि इमो छतरे पुरे वि सो मारतंड मह-तत्त-उदे पुरे हु णिप्फिल्लजोगि पुर-मुंबइ-सूरि-एसो॥13॥ वाराणसी (2002) में इन्हें महापतपस्वी घोषित किया जाता है। छतरपुर (2001) में तर्क शिरोमणि से विभूषित किए जाते हैं। उदयपुर (2003) में महातपो मार्तण्ड पद से अलंकृत होते हैं। मुंबई (2005) में निस्पृह योगी पद से शोभायमान होते हैं। 14 कुंजेवणे वि जुग-आइरियो सिरोवि इच्चल्ल-सूरि-गुरुभत्त-सिरोमणि वि। कोल्हापुरे लहदि तित्थसरंक्खगं च कुंजे हु सो समधि-सम्म-समाहि-पत्तो14॥ कुंजवन (2007) में युगाचार्य शिरोमणि, इचलकरंजी (2009) में गुरुभक्तशिरोमणि एवं कोल्हापुर में (2010) में तीर्थसंरक्षक शिरोमणि उपाधि को प्राप्त होते हैं। ये आचार्य उत्तम धी युक्त सन्मतिसागर कुंजवन में उत्तम समाधि प्राप्त करते हैं। सिस्स-परंपरा 1 . 15 साहुत्थि सीदल-समाहि-सुसेल-सम्मे सम्मेद-आगम-मुणी-अवि सोण-उद्दे। हेमो त्थि खेतठिद-सम्म सुझाण-लीणे माहिंद दोणय-समाहि-सुसम्म-जादि॥15॥ मुनिश्री 108 शीतलसागर सम्मेदशिखर में समाधिस्थ हुए। मुनिश्री 108 आगमसागर सम्मेदशिखर में समाधिस्थ हुए। मुनिश्री 108 उदयसागर सोनागिर में समाधिस्थ हुए। मुनिश्री 108 हेमसागर शिऊर क्षेत्र में ध्यान युक्त हैं। मुनिश्री 108 महेन्द्रसागर द्रोणगिर में समाधिस्थ हुए। सम्मदि सम्भवो :: 269

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