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आचार्य श्री के 73वें जन्म दिवस पर मुनियों, आचार्यों एवं भट्टारक लक्ष्मीसेन का भी आगमन होता है। संघ उनके सूत्र को प्राप्त होते हैं सो ठीक है - जो सम्यक् रीति से गमन करते चर्यादि करते हैं । उनके समक्ष प्रत्येक व्यक्ति आता ही है।
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वत्थुत्थ-दिट्ठि जल-वाहिणि-मेल्ल-जुत्ता संदंसति ण हु सागर - सागरम्हि ।
तच्चाण वेद विद सागर अज्ज अस्सिं
णं सुत्तबद्ध अणुसासण- सिक्ख देज्जा ॥4॥
वस्तुस्थिति यह है कि जलवाहिनी जगत में मिलते हुए दिखती है, परन्तु सागर, सागर से नहीं । आज तत्त्व - वेत्ताओं का सागर इस नगर में ऐसे मिल रहा है मानो वे सभी सूत्र बद्ध भी अनुशासन की शिक्षा देना चाहते हैं ।
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अस्सिं पसण्ण सुह देव बहुल्ल साहू अट्ठ गिंठ कचलूंच कुर्णेति अत्थ । सूरी सिरी वरदहत्थ - पदाण- अग्गी छक्के हु छक्क - सरि- दिण्ण-विसेस - मण्णे ॥15 ॥
इस प्रसंग पर प्रसन्नसागर, शुभसागर, देवेन्द्रसागर आदि आठ साधु केशलोंच करते हैं। सूरी श्री सन्मति सागर वरदहस्त दान में अग्रणी रहते हैं । यहीं पर 66वां दीक्षा स्मृति दिवस आचार्य आदिसागर जी का विशेष रूप से मनाया जाता है।
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कुंजे पुणो पवसदे हु अणंत विज्जं मुत्तिस्स ठावि समए इगसेद- सप्पो । पासाण - णिम्म धरए परिदंसदे सो खड्डासणे हु पडिमा स णो विदंसे ॥6॥
कुंजवन में पुनः प्रवेश करता है संघ जहाँ अनंतवीर्य की मूर्ति के लिए स्थापित किया जा रहा था। उस समय एक श्वेत सर्प पाषाण के नीचे दिखता था, पर मूर्ति के खड़े होने पर वह अदृश्य हो गया, दिखाई नहीं दिया ।
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चेत्ते दुबे जय-जए जण मज्झमुत्ती ठाविज्ज पच्छ णवमी-तिहि - जम्म- आदिं ।
सम्मदि सम्भवो :: 255