________________
होज्जए अवर-संमुह-वाह - थंभो देवाण
मूल नायक की प्रतिमा के सामने द्वार हो, दृष्टि पथ में स्तंभ, दीवार कूप एवं पिलर (अधारभूत स्तंभ) नहीं होना चाहिए। इससे देवों के गृह शुभदाई एवं मनोज्ञ होते हैं।
- सुहठाण - मणुण्ण - जादो ॥33॥
34
वेदीण मुत्ति-कडणीण जिणा गिहाणं संखा हवेज्ज विसमा वि दुवार आदी । झल्लोक्ख संख- सम-सेट्ठ- सदा - कुणेज्जा ईसाण - दिक्क - विसमो धुयदंड - गंठी ॥34॥
वेदियों, मूर्तियों, कटनियों और मंदिरों की संख्या विषम हो । दुवार, झरोखे सम संख्या वाले श्रेष्ठतम कहे गये हैं । तथा ईशान दिशा में ध्वज दंड भी विषम गांठों वाला हो ।
35
देवे गिहे परिसरे पण उलूग गिद्धो कावोद वास- चमगादड़ - सद्द - सद्दा । जज्जते हु असु अदिपीड - हेदू तेसिं णिवारणय-संति - विहाण - कुव्वे ॥35॥
देवालय के परिसार में उलूक, कौवा, गिद्ध, कबूतर या चमगादड़ का वास या शब्द नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे अशुभ होते हैं और पीड़ा के कारण बनते हैं । उनके निवारणार्थ शान्ति विधान करना चाहिए।
36
देवालयाण सिहराण धुजाण ठाणं सिंहासणाण वि-सहा - थलमंडवाणं । छत्ताण आदि सयलाण विसेख - झाणं होहेज्जदे वि पडिमाणुगदा हु अत्थ ॥36॥
देवालयों, शिखरों, ध्वजाओं, सिंहासन, सभा मंडपों एवं समस्त छत्र आदि को प्रतिमानुसार स्थान दिया जाता है ।
37
पिट्ठे ण गाम-णयरेण हु मुक्ति उद्घो
आहो विदिट्ठ-असुहो फल दायिणी णो ।
सम्मदि सम्भवो :: 205