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मूलस्स णायग-सदा बहुमाण - उच्चे भित्ति ण देज्ज ण हु संघड - लोह - जुत्तं ॥37॥
देवालय का पृष्ठ भाग गांव या नगर की ओर न हो, मूर्ति की उर्ध्व या अधो दृष्टि न हो, क्योंकि यह अशुभ होती इससे इष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती है। मूलनायक को सदैव बहुमान उच्च स्थान पर बिठाएँ । मूर्ति दीवार में या उससे सटा कर न रखें। मंदिर में लोहे का प्रयोग न करें।
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छत्तत्तयाणि कमबद्ध-लहुँ च उच्च सावंदणेज्ज पडिमा गहु अंगहीणा । अंगं उवंग-सहिदं अणुवज्जलेवं जग हवेदि अफुडोण कुणे वि पंचं ॥38॥
छत्रत्रय क्रमबद्ध हों, ऊपर लघु क्रम से हो। अंगहीन प्रतिमा वंदनीय नहीं । यदि सांगोपांग प्रतिमा है तो उसका वज्रलेप हो वही योग्य है। अस्पष्ट प्रतिमा का वज्रलेप नहीं होता है। वज्रलेप के पश्चात् उसका पंचकल्याणक होता है ।
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अम्हाण जीवण-धरिज्ज-सुखेत्त-काले वत्थं च विज्ज महपुण्ण - पहाव - ठाणं । पासाद - गेह-भवणं खणि- कूव आदिं सेज्जं च विज्ज- अणुलेह-विचारिदव्वं ॥39॥
हमारी जीवन चर्या के क्षेत्र स्थान में वास्तुविद्या का महत्वपूर्ण प्रभाव एवं स्थान है । प्रासाद, गृह भवन, खनन स्थान, कूप आदि, शय्या, विद्यास्थान, लेखन स्थान आदि पर भी विचार करना चाहिए ।
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णागिरि त्थि यणाहि-पसण्ण-दाई संदि-सेल- अवरो समवो वि पासो ।
अत्थेव आगद-समागद-देसएज्जा णीरप्पवाहिणि- पहाव-सुखेत्त-मुत्तो ॥40॥
नैनागिरि है नयनों में प्रसन्नता देने वाला क्षेत्र । यह रेसंदिगिरि नाम से भी प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र है । यहाँ पार्श्वप्रभु का समवशरण आया । यहाँ पर देशना हुई। यह नीर प्रवाहिनी का प्रवाह क्षेत्र उत्तम है। मूर्त रूप में स्थित है।
206 :: सम्मदि सम्भवो