________________
अण्णो णिरंधर-जिणे पध-सुज्ज-देसो
जाएज्ज वे विह पमाण णिरुप्पएज्जा॥29॥ देवालय संधार और निरंधार होते हैं। संधार देवालय में परिक्रमा पथ हो, पर इसके गर्भग्रह में सूर्य किरणों का सीधा प्रवेश न हो। निरंधार में सूर्य किरणों का सीधा प्रवेश गर्भगृह में होता है।
30
पुव्वे हु उत्तर दिसे हु दुवार-उग्घे झारोक्खए वि बहु उत्तर पुव्व-आदि। मुत्तिं मुहं च इध-दिस्स-हवे हु सेयो
कूवो इधे विदिस ईसणए हवेज्जा ॥30॥ मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर में खुलता हो, इसी ओर झरोखे भी अधिक संख्या में हों। मूर्ति का मुख पूर्व-उत्तर दिशा की ओर हो। कूप भी इसी दिशा में हो या फिर ईशान दिशा में हो।
31
मुत्तीए णाम-पडिपिच्छ ण छिद्द जाए वेदी दिढा वि सम णाहिय-उच्च-ठाणं। उच्चे अधे ण हु परिक्कम मग्ग-होज्जा
भव्वो जिणालय-इमो अणुदंसणेज्जा॥31॥ मूर्ति के पीछे दीवार में छेद न हो, वेदी दृढ़ (ठोस) हो, नाभि से ऊंची हो। वेदी के नीचे या ऊपर परिक्रमा मार्ग न हो। तभी जिनालय भव्य एवं दर्शनीय होता है।
32. रुक्खाण छाह-रहिदो णहि थंभ-छाहा गेहाण उच्च भवणाण ण छह-छाहा। जाएज्ज णो जिणगिहाण गिहेसु छाहा
चिन्तेज्ज भो मणुज! वत्थु-विसेस-लेहं॥32॥ देवालय में वृक्षों की छाया न पड़ती तो, स्तंभ और उच्चगृह भवनों की छाया न पड़ती हो। इसी तरह जिनगृहों की छाया भी गृहों पर न पड़ती हो। ऐसा हे मनुष्य! वास्तु शास्त्र का विशेष नियम जानो।
33
मूलस्स णायग-पुरे वि दुवार-होज्जा
दिट्ठीपहे ण हु वि थंभ य भित्ति कूवो। 204 :: सम्मदि सम्भवो