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तेरह सम्मदी
लासुण्ण - चाउम्मासो (2006)
आदिणाहं पहुँ वंदे, पढमं तित्थ पावणं । आदि मुणीस-आदीसं, आदिसागर सम्मदिं ॥ 1 ॥
मैं आदिनाथ प्रभु की वंदना करता हूँ। वे प्रथम तीर्थकर पावन आदि मुनीष, आदीश्वर को, आदिसागर अंकलीकर एवं सन्मतिसागर को नमन करता हूँ ।
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पव्वे सुदे सतरहाण दु केसलुंचं
साहूण सद्दहण-भावण - भाव- हत्थे । सिद्धंतसागर - मुणीस - ससंघ - अप्पे विस्साम- पच्छ-पहुआदि-पहुँ च ठाणे ॥2 ॥
श्रुत पंचमी ( 1 जून 2006) को सतरह - साधुओं का केशलोंच हुआ। श्रद्धा पूर्ण भावना से श्रद्धाजलि अर्पित की गयी आदिसागर के प्रति सिद्धान्त - सागर आचार्य के ससंघ सहित । माणिकबाग के समीप की आदिनाथ सोसायटी में विश्राम किया ।
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सेलम्म - गेह - जिण चेत्त- ससंघ - जादो णीरं गदं पणदरेय पवास - जुत्तो ।
चिट्टे भवाणिणयरे अति पल्लवीए आसीस-पत्त- इणमा णयणेसु दिट्ठि ॥3 ॥
संघ कमलसेलम के जिनगृह चैत्य पहुँचा, फिर नीरा को प्राप्त हुआ | पणदरे में प्रवास युक्त हुआ। जब आचार्य श्री भवानीनगर आए वहाँ पर उनके आशीष से पल्लवी के नेत्रों में दृष्टि आई ।
236 :: सम्मदि सम्भवो