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माहिल्ल-धम्म-तव-णि?-पहाण-संघो सज्झाय-झाण-रद-सम्म-सुदेसणाए। बोहेज्ज अप्प-परमप्प-विसुद्ध-दिढेि
सागार-सार-वद-बारह-मूल-साहुँ॥15॥ यह संघ महती धर्म प्रभावना युक्त एवं तपनिष्ट सदैव स्वाध्याय, ध्यान आदि में रत सम्यक् देशना से आत्मा की विशुद्ध दृष्टि एवं परमात्म स्वरूप को समझाते हैं। वे गृहस्थों के बारह व्रतों एवं मूलोत्तर गुणों की (साधु गुणों की) व्याख्या करते हैं। गुरुदंसणस्स भावणा
16 जेणं पवज्ज-जुद-साहु-समाचरेज्जा साहू सुणील-अवरो मुणि-सव्व-सम्म। आराहएज्ज णयरे चदुमास-काले
उज्जेण-पच्छ गुरुदंसण भावणाए॥16॥ जिनसे प्रव्रज्या युक्त साधु सम्यक् समाचारी करते हैं। ऐसे साधुओं में मुनि सुनीलसागर, सुदंरसागर आदि सभी उज्जैनी में सम्यक् आराधना में लीन रहते। चातुर्मासकाल में गुरुदर्शन की उत्कृष्ट भावना करते हैं।
उज्जेण-पच्छ-वडवाणि-पुरम्हि सव्वे इच्छंत दंसण-तधेव महासिसिंचं। ऊणे हु माण-जिण-बिंब आउज्जणम्हि
णिच्छेज्जजुत्त-सयला पचलेंति तत्थ17॥ उज्जैन के पश्चात् बड़बानी नगर में सब दर्शन के लिए विचारशील थे कि ऊन में मानस्तंभ और जिनबिंब के महामस्तकाभिषेक आयोजन में सुनीलसागर जी भी चल पड़े।
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इंदूर-वासगढ़-कंचयमंदिरादिं जम्मण्ण-कंचयणकासि जुदो त्थि एसो सीसं गिहं च समवं रदणेण तच्चं णाणं च पत्त-सयला अवि ऊण पावं॥18॥
सम्मदि सम्भवो :: 221