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39 एसो तवी गुरुवरो मुणदे कहाए सेट्ठीवरो परम-भत्त-पभुंजणम्हि। भज्जा इमस्स विवरीय-विरम्मएज्जा
चागिं तवं च असणं विणु वत्त-वत्ते॥39॥ आचार्य श्री कथा कहने में निपुण थे, एक दिन समझाते-एक नगर में एक श्रेष्ठी था,वह भक्त जनों को भोजन कराने में अग्रणी, पर इसकी भार्या (सेठानी) इनसे विपरीत थी। जो घर पर आए त्यागी-तपस्वी को भोजन कराए बिना बातों बातों में भगा देती थी।
40 सेट्ठी गदो इग-दिवे बहि-कज्ज-हेदूं सेठीपिया इग समागद-संमुहे हु। रोदेज्ज भासदि मए धुणए मुसल्ले
पल्लायदे हु गदि-तिव्व-तधेव सो वि॥10॥ एक दिन एक त्यागी आया, सेठजी को किसी कार्य से बाहर जाना पड़ा, तब सेठानी समागत के सम्मुख रोने लगती, फिर कहती ये मेरे सेठ जी आगत का स्वागत मूसल से करते हैं। यह सुनते ही वह त्यागी वहाँ तीव्र गति से भाग जाता है।
41 गेहम्हि आगद-इमो पडिपुच्छदे तं चागी कुदो अहिगदो मुणदे मुसल्लं। मग्गेज्ज णो हु दइएज्ज पदेज्जु भग्गे
हत्थे हुतं गिहिविदूण स तिव्व धावं॥41॥ घर पर सेठ जी आए, फिर पूछते सेठानी को त्यागी कहाँ गये। वह कहती-वे मूसल मांग रहे थे। ऐसा सुनते ही वे मूसल देने उसे हाथ में लेकर भागे। सेठ जी को मूसल हाथ में लिए हुए देखकर वह भी (त्यागी भी) तीव्रगति से भागने लगा।
42 किंचिंहि पच्छ मिलएज्ज कहेज्ज तस्स गिण्हेज्ज णेज्ज असणं धर मसलं च। सो भासदे ण गिहहिज्जमि सेट्ठणी सा
आसास-संत-खमएज्ज विचारएज्जा॥42॥ जैसे ही वह त्यागी मिला, उसके लिए कहा मूसल ले लो, भोजन कीजिए मेरे
228 :: सम्मदि सम्भवो