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अप्पं च संजम-तवं अणुसासणं च भासाइ सक्किदय-पाइय-सुत्त-मालं। अज्जेवि विज्जदि इधेव धराइ धारे।
बहोरि दाइ-उदयस्स महाकविस्स ॥3॥ अपने संयम, और तप, अनुशासन को लेकर चलने वाले ये प्राकृत, संस्कृत एवं सूत्र माल के पथिक इस धरा की धार में ही हैं। यहीं बम्हौरी द्वारा प्राकृत के महाकवि उदय का उदय हुआ।
एसा पवित्त-धरणी हु सरस्सदीए पुत्ताण खाण कण-हीर-गुणाण खेत्ते। पुण्णाधरा सयल सावग-सविगाणं
भत्ती मुदा मुणिवराण हु अग्ग-अग्गी ॥4॥ यह पवित्र धरणी है सरस्वती पुत्रों की। यह हीर कण की तरह गुणों का क्षेत्र है। यह धरा मुनिवरों के आने से भक्ति युक्त हो गयी। यह सभी श्रावक श्राविकाओं का पुण्य का फल है।
झाणं वि किं च भगवं गणणायगो तुं किं लक्खणं विविह-भेद-पभेद किं च। भेदाण णाम-अहिपाय-सुभाव हेदू
आधार अस्स चल-साहण-मोक्ख-सोक्खं ॥5॥ भगवंत गणनायक! ध्यान क्या है? क्या लक्षण? भेद-प्रभेद क्या है? भेदों के नाम, हेतु, अभिप्राय एवं भाव क्या हैं। इसका आधार क्या है? बल, साधन एवं मोक्ष का फल क्या है?
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जं कम्म खवणे सज्झे, साहणं परमं तवं।
तं मुणएज्ज झाणं च, सम्मं सुदाणु भासदे॥6॥ जो कर्म क्षय में साध्य, परम तप का साधन हो, वह ध्यान है। ऐसा विवेचन श्रुतानुसार कहते हैं।
सम्मदि सम्भवो :: 197