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धम्मे रदो मुणिवरो अणुचिन्त सुक्कं
तावे चरे वि अदिसूर-इमो हु अग्गे15॥ इष्ट या अनिष्ट दो ही वस्तुएँ होती हैं। ऋत-दुःख है इसलिए आर्त है और जो रुलाता है वह रौद्र है।इससे रहित मुनिवर धर्म में रत शुक्ल का चिन्तन करते हैं तभी तो तप में अतिशूर मुनिवर आगे आगे बढ़ते रहते हैं।
16 लेस्सासु लेस-गह जोग्ग सुपीद-आदी दुल्लेस्स-वज्जण-इमो वि विसुद्ध-चित्तं। पण्णा हु पारमिद जोगि बलेण जुत्तो
सुत्तत्थ संवल गदो दुहजेण अग्गे॥16॥ लेश्याओं में पीत, पद्म एवं शुक्ल को ग्रहण योग्य समझते। ये दुर्लेश्या छोड़ने में तत्पर विशुद्धचित्त को बनाते हैं। ये प्रज्ञावंत, अतिशय योगी अनंत चतुष्टय बल से युक्त होने के लिए सूत्रार्थ का आलंबन लेते हैं।
17 दो साहसे हु चदुमास-कुणंत-एसो पुण्णिम्म-गोदम-गुरु गुरुपुत्ति-पच्छा। सिद्धंत-वीर-अणुसासण-सावगाणं
दिक्खं तवं परि-सुचत्त-गिहं विणा णो॥17॥ सन् 2000 का चातुर्मास करते हुए आचार्य श्री ने गुरु पूर्णिमा पर परम गुरु गौतम गुरु को गुरु परंपरा का प्रारंभिक गुरु माना। इसी मध्य श्रावकों के लिए वीर शासन के सिद्धान्त का निरुपण किया और कहा कि दीक्षा, तप एवं गृहत्याग बिना कुछ भी नहीं प्राप्त होता है।
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सेयंस-खुल्लिग-गदा पढमे पवेसे मिस्सी-समा हु कधणी करणी-विसो त्थि। तज्जेज्ज तुम्ह कधणिं च कधं दुहं च
णाणिं सुदाणि तवसिं विणु संजमं णो॥18॥ छतरपुर के प्रथम प्रवेश होने पर श्रेयांसमती क्षुल्लिका हुई तब गुरू ने (19 जुलाई 2000) कहा
कथनी मीठी खांडसी, करनी अति विष लोय। कथनी तज करनी करो, फिर काहे दुख होय॥
200 :: सम्मदि सम्भवो