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कदापि नहीं । जो तीर्थ - श्रमण श्रमणियां शास्त्र स्वाध्याय में लगे रहते हैं उनकी आत्म विशुद्धि बनती है ।
55
साहूण संग - कुव्वेज्जा, सुज्ज - सम- पदित्तए ।
रागद्दोस - विरामेज्जा, पपंच - जण - सावगा ॥ 55 ॥
प्रपंच युक्त श्रावकजन रागद्वेष बढ़ाते हैं, उनसे बचना चाहिए । साधुओं की संगति करना चाहिए क्योंकि वे सूर्य के समान प्रदीप्त रहते हैं ।
56
मणसा अप्प - अप्पम्ह, राग होस-गदी सदा ।
समदा-सह-भावेणं, अप्पाणं सम आचरे ॥56 ॥
मन के द्वारा अपने आत्म परिणामों में राग-द्वेष सदा ही याद आते हैं तो उन्हें समता एवं सह अस्तित्व भाव से 'आत्मानं समं अचरेत्' को समझें ।
57
सत्तेसु सम्म-भावाणं, अप्प - अप्पम्हि संभवे ।
जादु अम्ह रोचेज्जा, तधा समचरेज्ज हु ॥57 ॥
अपने आप की तरह सोचें, सभी प्राणियों पर सम भावों को रखें। क्योंकि जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही अन्य के प्रति आचरण करें ।
58
अविवेगादु पावं च, समसम्मं विरामदे ।
विवेगे णत्थि आरंभो, समारंभ समो अवि ॥58 ॥
समरम्भ, समारंभ और आरम्भ तो अविवेक से होता है । वह पाप है । सदैव जो सदाचरण और समभाव नष्ट करता है। विवेक में ऐसा नहीं होता है।
59
विवरीद - मणुस्साणं अधम्मिगाण णिस्सरे ।
जिणगेह विणिम्मादो अहिपुण्णं मुणेह भो ! ॥59 ॥
विपरीत अधार्मिक जनों की परिस्थितियों को जो निकाल देता है वह जिनमंदिर से भी अधिक पुण्य कमा लेता है । भो प्राणी ! आप ऐसा चिन्तन करें।
सम्मदि सम्भवो :: 193