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मिच्छादिही जण-तिरिया, दिदी धम्मा जय-जयला।
रोहे रोहे ण हु बहिरा, सदा सद्दे जय वसिरा ॥2॥ धर्म दृष्टि यदि है तो जयजय रुचिकर लगता है, पर मिथ्या दृष्टि जन या तिर्यंच इसमें व्यवधान डालते ही हैं। ये मानते नहीं, इसलिए जय शब्द के जयकार को रोकना श्रेयस्कर समझा आचार्य जी ने। सारंगिका
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53 णह-सिग दंता पसुए, कर कय ते मणुजे।
णहु वि विसासं कुणहे, सर-कर हत्थे विरहे ॥53॥ इस जगत में नख, सींग एवं दांत वाले पशुओं, क्रूर-कृतांत मनुष्यों एवं जो हाथ में बाण लिए हुए चल रहा तो उस पर विश्वास नहीं करे।
बिंब
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.54 चलदि विहरेज्ज संघो, समय समएज्ज देसो।
मुणि-जण-विसाम-काले, पवयण-पवेज्ज माले॥54॥ __ संघ गतिशील रहता है, समय से समय देशना युक्त। मुनिजन अपने विश्राम के क्षणों में उनके प्रवचन या स्वाध्याय से लाभ पाते हैं।
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फासे चरण-चारित्तं, हीणस्स णूण णो कदा।
तित्थ-सत्थ-रमेज्जझाणं, अप्पविसुद्धि-कारणं 155॥ चरण चारित्र-आचरण वाले के छुए जाते हैं, हीन या कम चारित्र वाले के
192 :: सम्मदि सम्भवो