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( 3 मार्च, सन 2000) में आचार्य आदिसागर का समाधि दिवस मनाया जाता
है
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सम्मं समाहि-मरणं- इग- मेत्त-काले पत्तेज्ज जो णव-भवे खलु मुत्ति-लाहं । कासाय जेत्त-वद जुत्त जणा हु लोए अप्पाविसुद्ध परिणाम सहाव - णंतं ॥ 45 ॥
इस संसार में कषाय जीतने वाला व्रत युक्त मनुष्य आत्म-विशुद्ध परिणाम के अनंत स्वभाव को सम्यक् समाधिमरण को प्राप्त होकर नव भव में मुक्तिलाभ को अवश्य प्राप्त होता है ।
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सम्मा पउत्ति सुह कम्म- अनंत-भावं सेजण असुहं भव बंधणं च ।
देवेण सत्थ गुरु वंदण - अच्चणेणं
संसारिगीण किरियाण णिरोह सम्मं ॥46 ॥
सम्यक् प्रवृत्ति शुभ कर्म के अनंत भाव को दिखलाती है। इससे भव बंधन अशुभ भाव नहीं होता है । देव, शास्त्र एवं गुरु वंदन - अर्चन से सांसारिक क्रियाओं का अच्छी तरह निरोध होता है।
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णंदीसरस्स पडिदंसण- भावणा वि
एज्ज जो चरदि धम्म सुझाण मूले।
देवो हवेदि अणुदंसण लाह-मग्गं अप्पं पि पडिसुणेदि स सच्च - रूवं ॥47 ॥
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जिसके हृदय में नन्दीश्वर द्वीप के दर्शन करने की भावना होती है। वह निश्चय ही धर्म शुक्लध्यान में स्थित होता उसी में विचरण करता है । वह देव होता नन्दीश्वर के साक्षात् लाभ को प्राप्त होता है। इसी का दृश्य एक राजा अपनी रानी को सुनाता है। वह उस पर विश्वास करती है।
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पच्चीस - णव्व णव - वीर - महा-जयंती अप्पेलमास-छहदस्स-दिवे वि दिखा। सा खुल्लिंगा हवदि संभव संभवं च छिण्णं कसाय - aण खल्लिय खुल्ल भावं ॥48 ॥
190 :: सम्मदि सम्भवो