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भक्तामर, महावीराष्टक, स्वयंभू स्तोत्र आदि को पढ़ता है। सिद्धाणं वंदणं
49 भत्तिं च अच्चण-पहुँ थुदि-वंदणं च किच्चा हुणेमि-अजिदं विमलं च वीरं। संतिं च धम्म-सुमदिंगण-कुंथु-पुष्फं
सेयंस-पोम्म-णमि-सीदल-चंद-आदिं॥9॥ संघ भक्ति, अर्चन, प्रभु स्तुति, वंदन को करके नेमि, अजित, विमल, वीर, शान्ति, धर्म, सुमति, गणधर, कुंथु, मल्लि, पुष्पदंत, श्रेयांस, पद्म, नमि, शीतल, चन्द्र और आदि प्रभु के चरणों में नत मस्तक होता है।
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णंता हु णंत अरहाण पहूण वंदे सिद्धाण ठाण पुरिसाण मुणीण पादे। संघो वि मंदिर जलं च विसेस-छाहं
विस्सास-पच्छ-पडिकम्मण-चिट्ठिदो सो॥5॥ संघ सम्मेदशिखर के उच्च कूटों पर अनंतानंत अरहंत प्रभुओं, सिद्धों, मुनियों के परम पावन चरणों में नत होता है। यह जल मंदिर के विशेष छायादार स्थान में विश्राम कर प्रतिक्रमण में स्थित हो जाता है।
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रत्तिल्ल-अत्थ-भयमुत्त हु सव्व संघो आरुण्ण-सुज्ज-किरणेहि स चोव-कुंडे। देणंदिणं च किरियं कुणिदूण एसो
जेटे जधा तवणए वरसेज्ज मेहा ॥1॥ रात्रि में यह श्री संघ भयमुक्त यहाँ स्थित होता, अरुणोदय पर सूर्य किरणों के साथ चौपड़ा कुंड पर दैनंदिनी क्रिया करके ज्येष्ठ की तपन में मेघों के नीर से प्रफुल्लित होता है।
52 वायुप्पवाहि-अदि-णंद-पदायिणी हु धावल्ल-धाव-गदिसील-अणंद-मेहा। तावं खए पवण-सीदल-वाहिणी हु जेएज्ज रम्म-समणाण कुणेदि अज्ज 152॥
सम्मदि सम्भवो :: 169