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व्यसन मुक्त जीवन, जिन भक्ति आदि की अनेक कथाएँ सुनाई। सेवा से इस ननीभूत व्यक्ति को उसमें हिस्सेदारी प्राप्त हुई।
34 सीदे चरेदि मुणिराय-भयाभयं च दिस्साण पस्स दयभूद-सदा हु संघो। णग्गा इमे हु अणुणिंदण जाद-सव्वे
सोम्मो दिगंबरमुणी मिगराज-गामी॥34॥ । आचार्य संघ शीत में विचरण करता है। अनेक क्षेत्रों में भयावह दृश्य देखते हुए संघ के सभी साधु दयाभूत हो जाते हैं। इन्हें नग्न कहते हुए लोग निंदा करते, पर ये दिगम्बर मुनि सौम्य-समत्वशील मृगराज की तरह अनुगामी बने रहते हैं।
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आउज्झ-पत्त-सिरि-संघ-इणं च तित्थं सव्वं इदिं पुरिस-धाम-पहाण-कालं। णाहिं च आदिजिण खेत्त अजं च णाहं
णंदेज्ज णम्म सद साहस तित्थ णाहं॥35॥ श्री संघ अयोध्या को प्राप्त हुआ। यहाँ के जन्मे तीर्थकरों के इतिवृत्त, पुराण पुरुषों की धर्म प्रधान काल नगरी, नाभिराय, आदि प्रभु के क्षेत्र 'अजनाभ' को नमन करते हैं। ये सभी तीर्थनाथों की भूमि को सहस्रों बार नमन कर प्रसन्न होते हैं।
36 अज्झप्प खेत्त-भरहं भरहो इखागू सागेद-णाम-अजिदं अहिणंदणं च। तित्थकरं च सुमदिं च अणंत रामं
अच्चेज्ज अच्चणविहिं लहएज्ज णिच्चं ॥36॥ यह अध्यात्म का क्षेत्र, इक्ष्वाकुवंश की नगरी साकेत भी है। यह भरत का भारत, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनंत प्रभु एवं राम का स्थान है। नित्य अर्चनविधि को संघ प्राप्त होता है। सड्ढा सेयस्सजुदा
37 कित्तिंत जम्म दिवसं छहविंस जण्णे गामे सहादतगजे हुइगा हु बुड्डी।
सम्मदि सम्भवो :: 187