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तिल्लोक-चंद-रदणो सिहरो महिंदो साणक्क भाग-विजयो बहु-सावगा वि। पुष्पं च भूद-पहुदिं मुणिवंत आदिं
छिण्णेति गंथ परिगेह ससंग-भावं॥3॥ इस प्रसंग पर त्रिलोकचंद्र गोधा, रतन लाल बडजात्या, शिखरचंद्र पहाड़िया महेन्द्र हंडावत, सनत कुमार, भागचंद्र पाटनी, विजयकुमार इंदौर आदि श्रेष्ठी एवं अनेक श्रावक-श्राविकाएँ भी थीं। यहाँ श्रुत पंचमी पर पुष्पदंत, भूतबलि आदि मुनिवंतों के ग्रंथों को स्मरण करते हुए ग्रन्थ परिग्रहादि के संयोग भाव को छेदने के लिए यह कार्य किया गया हो। पंकावली
5।।। ।।। ।।5।। = 16 वर्ण
संभव भरह-सु सीयल मंदउ सम्मदि तव मुणिराय-गणिंदउ। संघउ विहरदि परमाणंदउ
देवघरहु गिरि मंदर खेत्तउ॥4॥ आ. संभव, आ. भरतसागर, शीतलसागर, कुमुदनंदी, आ. सन्मतिसागर, तप सागर आदि मुनिराज परमानंद युक्त क्षेत्र में विराजते रहते हैं। आचार्य संघ देवघर आदि से विचरण करता हुआ मंदारगिरि को प्राप्त होता है।
अत्थेव रत्त-पडिमा अदि दंसणिज्जा वासुस्स पुज्ज जिण बिंब मणुण्ण-अत्थि। सामुद्द-मंथण-भवे हुमधाणि-सेले
कल्लाणगत्तय-पवित्त पहा ण खेत्ते॥5॥ मंदारगिरि की लालप्रतिमा अति दर्शनीय है। वासुपूज्य का जिन बिंब भी मनोज्ञ है। यहीं वासुपूज्य के तीन कल्याणक हुए थे। इस पवित्र क्षेत्र के पर्वत को समुद्र मंथन को मथानी बनाया गया था ऐसी वैदिक मान्यता है।
178 :: सम्मदि सम्भवो