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तिव्वा हु तिव्व घण- -घोर-घडाहि णीरं वाउप्पवाह-बवडंवर - गाम रोसो । खम्मेह तुम्ह सयलं च समाहि- भावं कुव्वेज्ज तुम्ह तव मुत्ति मुणीस - अम्हे ॥17॥
तीव्रतितीव्र घनघोर घटाओं से नीर, वायु प्रवाह रूप बवंडर एवं इधर ग्रामीणजनों रोस था । अत: वे सभी ट्रष्टिगण क्षमा माँगते हैं और ठहरने का निवेदन करते हैं और आप सभी तप मूर्ति हैं मुनीश हो हमारे ।
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कित्ती गणी तवसि सम्मदि सम्म सेवे सम्मं समाहि मुणि मल्लि इधेव जादे । वे सत्तरे गुणसमुद्द-सिरी मुणीसा मंगीतुंग चदुमास अणेग दिक्खा ॥
आचार्य महावीरकीर्ति एवं तपस्वी सन्मति सागर के सम्यक् सेवा होने पर एक मुनि समाधि को प्राप्त हुए। गजपंथा के पश्चात् सन् 1970 में गुण समुद्र रूपी सभी मुनिवर मांगी-तुंगी चातुर्मास में अनेक दीक्षाएँ कराते हैं ।
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वासू सुधम्म- मुणि सुव्वद णेमि स - साहू गहु अज्जिय गणा हु महव्वदी हू । पव्वज्ज-पुव्व-सयला अणुचारि - सव्वे
भावेज्ज तित्थ - गिरणार - सुवंदणत्थं ॥19॥
मांगीतुंगी में वासुसागर, सुधर्मसागर, सुव्रतसागर, नेमिसागर एवं अनेक आर्यिकाएँ प्रव्रज्या युक्त सभी महाव्रती उनके अनुचारी बने । आचार्य श्री महावीरकीर्ति ने गिरनार तीर्थ वंदन के उत्तम भाव किए।
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इंदोर-सेट्ठि रदणो अणुलाह जुत्तो सिद्धादु पच्छ इध किंचि-पवास-भूदो । पावादि - सिद्धवरकूड-धरामणावि जुल्लो भवंत- पदपत्तय पाव खेतो ॥20 ॥
इन्दौर के श्रेष्ठी रतनलाल जी काला संघ विहार के लाभार्थी सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी के पश्चात् इन्दौर कुछ प्रवास युक्त हुआ । फिर पावागिरि, सिद्धवरकूट, धरमपुरी, मनावर, बाकानेर, जुलवनिया, आदि होता हुआ पावागढ़ क्षेत्र गत होता है ।
सम्मदि सम्भवो :: 105